पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/८८

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- , बृहदारण्यकोपनिषद् स० तिष्ठति, तस्य, बै, वाग, एव, प्रतिष्ठा, · वाचेि, हि, खल, एषः, एतत् , प्राणः, प्रतिष्ठितः, गीयते, अन्ने, इति, उ, ह, एके, आहुः ॥ अन्वय-पदार्थ। या-जो। तस्य ह-उसी । एतस्य साम्न: इस साम के । प्रतिष्टाम-गुण हो । वेद-जानता है। + सान्वह उपामा । ह भी । प्रतितिष्ठतितिष्टाचाला होता है । तस्य-उस साम की । प्रतिष्ठा-प्रतिष्ठा । एवम्ही । बैं-निश्चय करके । वारवाणी है। हि-क्योंकि । एपः यह । प्राण:-माणरूप साम । खलु-निश्चय करके । वाचि-मुख के भीतर पाठ जगहों में। प्रतिष्ठितः + सन्-रहता हुश्रा । एतत् गीयते-गाया जाता है । उ और । एके-कोई प्राचार्य । इति ह ऐसा भी। आहुः कहते हैं कि । प्राणः-प्राण । अन्ने अन्न में प्रतिष्ठितः= प्रतिष्ठित रहता है क्योंकि बिना अन्न के प्राण अपना कार्य नहीं कर सका है। भावार्थ । हे सौम्य ! जो इस साम के प्रतिष्ठा को जानता है, वह प्रतिष्ठावाला होता है, साम की प्रतिष्ठा वाणी है, क्योंकि यह प्राणरूप साम मुख के भीतर आठ जगहों में रहता है, और उन्हीं के द्वारा गाया जाता है, और कोई कोई आचार्य ऐसा भी कहते हैं कि प्राण अन्न में रहता है, क्योंकि विना अन्न के प्राण अपना कार्य नहीं कर सक्ता है, और न शरीर विष स्थित रह सक्ता है ।। २७ ॥ मन्त्र: २८ अथातः पवमानानामेवाभ्यारोहः स वै खलु प्रस्तोता .