पृष्ठ:बेकन-विचाररत्नावली.djvu/१०

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(५)
विपत्ति।
विपत्ति २.

आपद्गतः[१] किल महाशयचक्रवर्ती
विस्तारयत्यकृतपूर्वमुदारभावम्।
कालागुरुर्दहनमध्यगतः समन्ता-
ल्लोकोत्तरं परिमलं प्रकटीकरोति॥

भामिनीविलास।

सेनेका[२]ने बहुत ठीक कहा है कि, सम्पत्ति कालकी जितनी सद्वस्तु हैं उनके मिलनेकी अभिलाषा रखनी चाहिये परन्तु विपत्तिकालकी जितनी सद्वस्तु हैं उनकी साश्चर्य प्रशंसा करनी चाहिये। मनुष्यस्वभाव के ऊपर आधिपत्य करनेको यदि विलक्षण चमत्कार कहते हों तो ऐसे ऐसे अनेक चमत्कार विपत्तिहीमें देख पड़ते हैं। उसी तत्त्ववेत्ताकी उपर्युक्त उक्तिसे बढ़कर एक और उक्ति है। वह कहता है कि, एकही व्यक्तिमें मनुष्यकी अशक्तता और ईश्वरकी निर्भयताका होनाही सच्चा बड़ापन है। इस प्रकारकी उक्ति काव्यमें अधिक शोभा देती, क्योंकि उसमें मनमानी कल्पना की जासकती है। प्राचीन ग्रीक तथा रोमन कवियोंने इसका उपयोग किया भी है। वे कहतेहैं कि, प्रोमीथियस[३]को


  1. आपत्तिकालमें सत्पुरुष उस उदारताको दिखाते हैं जो उन्होंने पहिले कभी (अर्थात् ऊर्जितावस्थामें) भी नहीं दिखाई थी। सत्य है, कालागरुको अग्निमें रखनेहीसे उसकी लोकोत्तर सुगन्ध सब ओर फैलती है।
  2. रोमनगरमें सेनेका नामका एक प्रख्यात तत्त्ववेत्ता होगया है।
  3. प्रोमीथियसका जन्म ग्रीसदेशमें हुआ था। यह ऐसा विलक्षण चतुर और छली था कि, इसने अनेक बार देवताओंसे भी छल किया। इसीलिये जुपीटर नामक देवोंके राजाने क्रोधमें आकर इसे काकेशश पर्वतके एक शिखरसे बाँध दिया था। यहीं हरक्यूलिसने इसे बन्धमुक्त किया।