कृत्योंमें व्यय करना चाहिये; अन्यत्र नहीं। विशेष व्यय करनेका प्रसंग आनेसे कार्यके महत्त्वका विचार करके तदनुसार व्यय करना चाहिये क्योंकि योग्य प्रसंग पड़नेपर अपनी समस्त सम्पत्ति भी यदि व्ययकर दी जाय तो वह व्यय दोनों लोकोंमें बराबर श्रेयस्कर होताहै। परन्तु सामान्य व्यय मनुष्यको अपनी शक्तिके अनुसार करना चाहिये और उसकी ओर सदैव ध्यान रखना चाहिये कि, प्राप्तिसे अधिक तो नहींहोता। नौकर चाकरों पर भी दृष्टि रखनी चाहिये जिसमें वे अनुचित व्यय न करैं और छलसे स्वार्थ साधन भी न करसकैं। प्रबन्ध ऐसा करना चाहिये जिसमें अपने घरका यथार्थ व्यय लोगोंके अनुमानकी अपेक्षा कमहीरहै; बढ़ने न पावे। यदि किसीकी यह इच्छा हो कि उसे धन सम्बन्धी कोई असुविधा न हो तो उसको अपनी प्राप्तिका आधा भाग व्यय करना चाहिये और यदि धनी होनेकी इच्छा हो तो केवल एक तृतीयांश व्यय करनाचाहिये। बड़े बड़े श्रीमान् लोगोंको भी अपने आय व्ययका विचार करना और अपनी सम्पत्तिपर दृष्टि रखना उचितहै ऐसा करनेमें कोई मानहानि नहीं। कोई कोई लोग अपने आय व्ययकी व्यवस्था नहीं देखते; इसका कारण केवल उनकी आलसताही नहीं, किन्तु हिसाब करके धनकी क्षीणताको जानकर वे दुःखित होनेसे डरतेहैं, यह भी है। परन्तु ऐसा करना कदापि समुचित नहीं। घाव कहां है, यह जब तक नहीं जाना जायगा तबतक उसका प्रतीकार कैसे हो सकेगा? जो मनुष्य अपनी सम्पत्तिकी व्यवस्थाको भलीभाँति नहीं देख सकता उसको प्रामाणिकनौकर रखने चाहिये और वे समय२ पर बदलने भी चाहिये, क्योंकि नवीन नौकर विशेष डरते हैं, अतएव वे कपट व्यवहार भी नहीं करते। जिसे अपनी सम्पतिके निरीक्षण करनेका अवकाश कम मिलताहै, उसे अपने आय और व्ययका निश्चय कर डालना चाहिये। अर्थात् क्या मिलताहै और क्या देना पड़ता
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बेकन-विचाररत्नावली।