जैसा ऊपर कहागया है, समयकी योग्यता अथवा अयोग्यताका पूर्ण विचार करके कार्यको आरम्भ करना चाहिये। साधारणतः बड़े २ सारे कामोंका आरम्भ आरगस[१] (सहस्राक्ष-इन्द्र) और उनका अन्त ब्रिएरिस[२] (सहस्रबाहु-अर्जुन) के स्वाधीन करना उचित है। इसका यह तात्पर्य है कि, पहिले योग्यप्रसंगको सूक्ष्मदृष्टिसे देखते रहनाचाहिये और ज्योंही वह आजाय त्योंही हरप्रयत्नसे कार्य करलेना चाहिये। कहतेहैं कि, प्लूटो[३]के शिरस्त्राणको धारण करनेसे राजकार्यपटु पुरुष अदृश्य होजाते थे। कार्य का विचार गुप्तरीतिसे करना, और विचार स्थिर करके, जितना शीघ्र होसके उतना शीघ्र, उसे समाप्त करदेना ही इस कहावत का अभिप्रायहै। जिसप्रकार बन्दूक भरके उसे छोड़तेही वायुमें गोली इस वेगसे जातीहै कि, दिखाई तक नहीं देती, उसीप्रकार यथोचित सिद्धता होने पर कामको तुरन्त करडालने में देरी नहीं लगती क्योंकि वेगका प्रयोग करनाही उस समय मानों उस कार्यको गुप्त रखना है।
तद्वक्ता[४] सदसि ब्रवीतु वचनं यच्छृण्वतां चेतसः
प्रोल्लासं रसपूरणं श्रवणयोरक्ष्णोर्विकासश्रियम्।
क्षुन्निदाश्रमदुःखकालगतिहृत्कर्मान्तरप्रस्मृति
प्रोत्कण्ठामनिशं श्रुतौ वितनुते शोकं विरामादपि॥
कल्पतरु।
- ↑ रोमन दैत्य आरगस के १०० नेत्र थे जिनमेंसे केवल दो एक समय में निद्रा लेतेथे।
- ↑ ब्रिएरिस भी ग्रीक और रोमनलोगोंका एक दैत्य था। इसके १०० हाथ और ५० शिर थे।
- ↑ प्लूटो-ग्रीक और रोमन लोगों का यम है।
- ↑ वक्ता को सभामें ऐसा भाषण करना चाहिये जो श्रोताजनों का अन्तःकरण उल्लसित करदेवे; कानों को श्रृंगारादिनवरसों से पूरित करदेवे; नत्रों को विकसित करदेवे; क्षुधा निद्रा श्रम दुःख और अन्य कार्यकी विस्मृति करदेवे तथा सुनने के लिये लोगों के चित्तमें उत्कंठा और बन्द होजाने पर शोक उत्पन्न कर देवें।