उसे तुच्छ न समझकर उस बातको जो जानते हों उनसे कहना चाहिए। रोगआनेपर आरोग्यता की ओर और निरोग होनेपर व्यायामकी ओर विशेष दृष्टि रखनी चाहिए। आरोग्यदशामें जो मनुष्य छोटे मोटे कष्ट सहनेका अभ्यास बनाए रखतेहैं वे जब सामान्यरीतिपर रोगग्रस्तहोतेहैं तब अनुकूल पथ्य और सेवा शुश्रूषाही से अच्छे होजाते हैं। रोममें सेलसस नामक एक प्रख्यात वैद्य होगयाहै। वह चिकित्सा में तो अत्यंत निपुणथाही परन्तु विलक्षण बुद्धिमान भी था। उसका यह मत है कि एकहीबात को बराबर न करके परस्पर विरुद्धबातोंका फेरफार करते रहनेसे मनुष्य निरोग रहता है और दीर्घायु होता है। उदाहरणार्थ:-कभी लंघन करना चाहिए, कभी पेटपर भोजन करना चाहिए; परन्तु लंघन कम करना चाहिए। कभी जागरण करना चाहिए, कभी स्वच्छन्द निद्रा लेना चाहिए; परन्तु जागरण कम करना चाहिए। कभी विश्राम लेना चाहिए, कभी व्यायाम करना चाहिए; परन्तु विश्राम कम लेना चाहिए। ऐसा करनेसे प्रकृति स्वच्छ रहतीहै और कष्ट सहन करनेका स्वभाव पड़ जाता है।
बहुतेरे चिकित्सक इतने मिष्टभाषी और रोगी की सूचिके अनुसार वर्तन करनेवाले होते हैं, कि वे रोगनाशक यथार्थ ओषधिके सेवन करनेके लिए रोगी को कभी विवश नहीं करते। और अनेक ऐसे होतेहैं जो रोगीकी प्रकृतिका पूरापूरा विचार न करके, चिकित्सा करने में, शास्त्रोक्त पद्धतिका रेखामात्राभी अतिक्रमण नहीं करते; अतएव ऐसे चिकित्सक से चिकित्सा करानी चाहिए जिसमें उपरोक्त दोनोंगुण पाए जातहों। यदि कदाचित ऐसा न मिलै तो दोनों प्रकारके दोचिकित्सक बुलाने चाहिए। परन्तु स्मरण रहै कि इन दोमें से एकतो ऐसा होना चाहिए जो रोगीकी प्रकृतिका भली भांति ज्ञान रखताहो; और दूसरा अपनी विद्या अर्थात् वैद्यकशास्त्रमें निपुणहो।