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पृष्ठ:बेकन-विचाररत्नावली.djvu/४५

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(४०)
बेकन-विचाररत्नावली।
यौवन और जरा १५.

[] तेन वृद्धो भवति येनाऽस्य पलितं शिरः।
यो वै युवाऽप्यधीयानस्तं देवा:स्थविरं विदुः॥

मनुस्मृति।

जो मनुष्य वर्षों मे छोटा है, वह, यदि उसने अपना समय वृथा नष्ट नहीं किया,तो घंटों बडा हो सकता है। तात्पर्य यह है कि अल्पवयस्क होकर भी जिसने अपने अमूल्य समय का अपव्यय नहीं किया, उसके ज्ञानवृद्ध होने में कोई आपत्ति नहीं आसकती; परन्तु यह बात बहुत कम पाई जाती है। मनुष्य के पहिले पहिल उत्पन्न हुए विचार जैस आगे के विचारों की अपेक्षा निकृष्ट होते हैं वैसेही तारुण्य में वृद्धापकाल की अपेक्षा बुद्धिका विकास कम होताहै। वय का परिपाक न होने से ज्ञानका परिपाक नहीं होता; जैसे जैसे वयोवृद्धि होतीहै वैसे वैसे बहुदर्शिता भी बढ़ती जाती है; परन्तु नूतन वय में वृद्धावस्था की अपेक्षा अभिनव शोध निर्माण करने की शक्ति बलवती रहती है और कल्पनाओं के स्रोत मन में आधिक वेग से बहते हैं। जो मनुष्य पित्तप्रकृति के हैं और जिनका मन अति उच्छृंखल तथा जिनकी भोगवासना अति प्रबल होती है वे यौवन का उन्माद उतरने के पहिले किसी सत्कार्य में अभिनिवेश करने के योग्य नहीं होते। रोम के सार्वभौम राजा जूलियस सीज़र और सेप्टीमियस सिवेरस इसी प्रकार के थे। इनमें से दूसरे अर्थात् सेप्टीमियस सिवेरस के विषय में कहीं लिखा है कि उस ने अपना सारा वय सार्वजनिक कार्यों में शतशः भूल करने और तज्जनित पश्चात्ताप पाने में व्यतीत किया। परन्तु फिर भी यह कहना अत्युक्ति न होगी कि वास्तव में और सब राजाओं की अपेक्षा वही विशेष योग्य था। जो स्वभावतः शान्त और धीर होते हैं वे तरुणता में भी अपना काम काज भली भांति कर सकते हैं।


  1. केश पकजाने से कोई वृद्ध नहीं होता; युवा होकर भी जो बहुश्रुत और विद्वान् है उसीको देवता वृद्ध कहते हैं।