पृष्ठ:बेकन-विचाररत्नावली.djvu/५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(५३)
आत्मश्लाघा।


स्वाभिमानके विषयमें न समझना चाहिए जिसका वर्णन टासिटस[१]ने म्यूसियेनसके सम्बन्धमें किया है। किसी किसीको अपने काम काजका गौरवपूर्वक वर्णन करनेकी एक ऐसी युक्ति आती है कि उसे आत्माभिमान नहीं कह सकते। इस प्रकारकी भाषणपद्धति शुष्क अभिमानसे नहीं उत्पन्न होती, किन्तु मनकी स्वाभाविक उच्चता और बोलनेवालेकी विज्ञतासे उत्पन्न होती है। इसप्रकारका सयुक्तिक और गौरवशील भाषण बुरा न लगकर किसी किसीको उलटा शोभा देताहै। अपनी भूल मानलेनेका सा भाव दिखलाना; दूसरेके कहनेको युक्तिसे अङ्गीकार करना; मर्यादशीलताका वर्ताव रखना इत्यादि बातें इस विचित्र भाषणपद्धतिके लक्षण हैं। दूसरेके मुखसे अपनी प्रशंसा करालेने की एक सर्वोत्तम युक्ति यह है कि, जो गुण अपनेमें पूर्ण रूपसे वास करते हैं वे दूसरेमें देखकर उस मनुष्यकी यथासम्भव प्रशंसा करनी चाहिए। प्लीनी ने कहा है कि, दूसरे की प्रशंसा करने में तुम मानों स्वयं अपने गुणोंकी यथार्थता व्यक्त करते हो। जिसकी तुम प्रशंसा करते हो वह प्रशंसितगुणोंमें तुमसे न्यून होगा अथवा अधिक होगा। यदि वह तुमसे न्यून है तो जितनी प्रशंसा उसकी करते हो उससे तुम्हारी अधिक होनी चाहिए; और यदि वह तुमसे अधिक है तो जो तुम उसकी प्रशंसा न करोगे तो तुम्हारी कैसे होगी?

अपने मुहँ मियांमिठू बननेवाले, बुद्धिमान् जनोंके तिरस्कारास्पद होते हैं; मूर्खोंके स्तुतिपात्र होते हैं; खुशामदी लोगोंके मूर्तिमन्त देवता होते हैं; और अपनी ही वृथा बड़ाईके दास होते हैं।


  1. टासिटस रोममें एक प्रसिद्ध इतिहासकार होगया है। ईसवी सन् के प्रथम शतकमें वह विद्यमान था।