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बेकन-विचाररत्नावली।

मनुष्योंको असत्य क्यों इतना प्रिय है? सत्यके ढूँढनेमें अनेक कष्ट और परिश्रम उठाने पड़ते हैं, इसलिये लोग असत्य बोलतेहैं; अथवा सत्यको पाने पर तदनुकूल व्यवहार करनेसे वे डरतेहैं, इसलिये असत्य बोलते हैं। नहीं; ये दोनों कारण ठीक नहीं। मनुष्यका बुरा स्वभावही असत्य बोलनेका आदिकारण जान पड़ता है। कवि लोग मनोरंजनके लिये मिथ्या बोलते हैं और व्यापारी लोग व्यापारमें लाभ उठानेके लिये ग्राहकोंसे मिथ्या बोलते हैं; परन्तु जहाँ अणुमात्रभी स्वार्थकी सिद्धि नहीं है, वहाँभी बहुधा लोग मिथ्या बोलते हैं। इसका क्या कारण है कुछ समझमें नहीं आता। झूठ बोलनेमें क्या कोई विशेष आनन्द मिलता है जिससे लोग वैसा करते हैं? इस विषयका शोध करनेके लिये एक ग्रीकतत्त्ववेत्ताने बहुत कालपर्यन्त परिश्रम किया, परन्तु उसका अभीष्ट अन्तमें सिद्ध नहीं हुआ। सत्य, दिनके शुभ्र प्रकाशके समान तो नहीं है? नाट्याभिनय तथा ऐन्द्रजालिक खेलोंमें जो नाना प्रकारके दृश्य दिखाये जाते हैं, वे रात्रिके समय जितने भव्य और मनोरंजक लगते हैं उसके आधे भी दिनमें नहीं लगते। इसी प्रकार सांसारिक विषय असत्यका सहारा पानेसे जैसा खुलते हैं सत्यका सहारा पानेसे वैसा नहीं खुलते। सत्यकी तुलना मोतीसे की जा सकती है-मोती दिनमें विशेष चमकता है परन्तु हीरा नहीं। इसीसे हीरेकी उपमा नहीं दे सकते। हीरेके चारों ओर रात्रि में दीपकका प्रकाश पड़नेसेही उसकी दीप्ति अधिक दिव्य देख पड़ती है।

सत्यके साथ असत्यका मेल करनेमें मनुष्यको एक प्रकारका आनन्द मिलताहै-इसमें कोई सन्देह नहीं। यदि मनुष्यके मनसे वृथाभिमान, अत्युच्च आशा, अनुचित आग्रह तथा नाना प्रकारकी कल्पना निकाल ली जावैं तो सहस्रशः मनुष्योंका चित्त इतना उदास, खेदित और आकुञ्चित होजायगा कि, वह स्वतः उन्हींको दुःखदायक होने लगेगा।