एक क्रिश्चियन धर्मप्रचारकने आवेशमें आकर कविताको "राक्षसों के पान करने का पदार्थ" कहा है; क्योंकि कवित्वके आस्वादनसे मनुष्योंके मनमें नाना प्रकारकी असत्यकल्पना उत्पन्न होती हैं। ऐसा असत्य जो उत्पन्न होकर कुछ कालके अनन्तर नाश होजाता है वह हानिप्रद नहीं है; परन्तु जो असत्य मनमें लीन होकर वहीं स्थिर रहता है वह अति अन्यायकारक है और इस प्रस्तावमें उसी प्रकारके असत्यसे हमारा अभिप्राय है। विवेकहीन दुष्टप्रकृति मनुष्योंको असत्य चाहै जितना प्रिय हो परन्तु सत्य स्वयमेव यह शिक्षा करता है कि, सत्यका शोध करनेमें, सत्यको जाननेमें और सत्यपर विश्वास रखनेहीमें मनुष्यका कल्याण है। सृष्टिरचना के समय ईश्वरने प्रथम इन्द्रियगोचर प्रकाश निर्माण किया; तदनन्तर उसने ज्ञानगम्य प्रकाश को बनाया अर्थात् आदिमें उसने पञ्च महाभूतोंको और फिर मनुष्यको आत्मा रूपी प्रकाशसे प्रकाशित किया। तदतिरिक्त अभीतक बराबर समय समयपर वह अपने प्रीतिपात्र भक्तोंके अन्तःकरणको सत्यप्रकाशसे प्रकाशित कियाही करता है।
औरोंकी अपेक्षा एक कनिष्ठ जातिको अलंकृत करनेवाला एक कवि बहुतही उत्तमताके साथ कहता है कि, तटपर खड़े होकर समुद्र में जहाजोंका इधर उधर डगमगाना देखकर आनन्द होता है; गढ़के भीतर खिड़कीके पास बैठकर नीचे होते हुए युद्ध और तद्गत वीरोंके पराक्रमको देखकर आनन्द होता है; परन्तु सत्यके शिखरपर आसन लगाकर नीचेके लोगोंके प्रमाद, दौड़ धूप, भ्रान्ति और अज्ञान को देखकर जो आनन्द होता है उस आनन्दकी उपमाही नहीं है। हां, यह अवश्य है कि, ऐसी दशामें देखनेवालोंको उन्मत्त होकर गर्वकी दृष्टिसे नहीं किन्तु दयार्द्रदृष्टि से देखना चाहिये। जो परोपकारमें रत है, ईश्वर में जिसको विश्वास है और सत्यका जो अनुसरण करता है उसको भूमण्डलही स्वर्ग है।