उचितमनुचितं[१] वा कुर्वते कार्यजातं,
न तदपि परितापं यान्ति धृष्टाः कदापि।
स्फुट।
यद्यपि यह बात छोटे छोटे पाठशालाओंमे पढनेवाले लडकोंको भी सिखलाई जाती है तथापि वह बुद्धिमान् मनुष्यके भी विचार करने योग्य है। बात यह है। एकबार किसीने डिमास्थनीज[२]से पूंछा कि, "वक्ता का मुख्य गुण कौन है?" उसने उत्तर दिया, "अभिनय"। तब उस मनुष्यने पूँछा, "अच्छा इससे उतर कर कौन गुण है?" फिर भी उसने उत्तरदिया, "अभिनय"। जब तीसरी बार उसने पूंछा तब भी उसने वही उत्तर दिया, "अभिनय"। वास्तवमें जिस गुणकी उसने इतनी प्रशंसा की वह उसमें स्वभावसिद्ध नथा परन्तु अभ्याससे उसने यह सिद्धकर दिखाया था कि अभिनय अर्थात् बोलनेके समय हाव भाव दिखलानाही वक्ताका प्रधान गुण है। अभिनय एक ऐसा गुण है जिसकी आवश्यकता वक्ताकी अपेक्षा नटको अधिक होती है; वक्ताके लिए तो वह बाह्य उपकरण मात्र समझना चाहिए। तथापि कल्पनाशक्ति, भाषणपद्धति; तथा और और गुणोंकी अपेक्षा अभिनयहीको श्रेष्ठत्व देनाश्रेष्ठत्व क्या देना किन्तु उसीको वक्तृताका सर्वस्व समझना आश्चर्य की बात है। परन्तु कारण इसका स्पष्ट है। मनुष्य मात्रमें स्वभावतः बुद्धिमत्ता की अपेक्षा मूर्खता का अंश साधारणतया अधिक रहता है
- ↑ धृष्ट मनुष्य उचित अथवा अनुचित सभी काम करते हैं और करके पश्चात्ताप नहीं पाते।
- ↑ डिमास्थनीज ग्रीसकी राजधानी एथन्समें ईसाके ३८५ वर्ष पहिले उत्पन्न हुआथा। यह एक प्रख्यात वक्ताथा। पहिले इसे अच्छी प्रकार बोलना न आता था परन्तु इसने अपने मुखमें पत्थर की गोलियां रख रखकर और समुद्र के तटपर जहां तरंगोंका घोर शब्द होताथा वहां जा जा कर मेघगम्भीरध्वनिसे वक्तृता करनेका अभ्यास किया।