पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/११७

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एजीब अध्याय २६ बुद्ध की भाषा को मागधी मानते हैं, यद्यपि पालि में वैयाकरणों की मागधी के विशेष चिह नहीं मिलते। श्रीरीस डेविड्स पालि के मूल को कोशल की भाषा मानते हैं। संक्षेप में यह सिद्ध होता है कि गेय्य, गाथा और वेदल-ये संग्रह उस उस छन्द नाम पर हैं, जिसमें ये लिखे गये हैं। उदान और इतिवृत्तक भी छन्दोबद्ध हैं। जातक (जन्मकथा ) भी श्लोकों का संग्रह है। जातक का वर्गीकरण श्लोकों की संख्या के अनुसार । इसमें बुद्ध के पूर्वजन्मों से संबन्ध रखनेवाले श्लोक मात्र हैं । जातकट्ठकथा ( जातक की अर्थ कथा टीका ) में कथा भाग हैं। इस प्रकार प्रारम्भ में, आगम में पद्य का प्राधान्य था। उसका यह अर्थ नहीं कि गद्य का अभाव था। साथ-साथ सरल अर्थ-कथा (व्याख्या ) रही होगी, जिसके विना श्लोकों को समझना संभव नहीं था, किन्तु श्लोकों के समान उनका प्रामाण्य न था। जब तक बुद्ध-वचन लिपिबद्ध न हुअा था, तब तक धर्म, बुद्धवचन का रूप ऐसा रहा होगा, जिसके पाठ में सुविधा हो और जो सुगमता से कण्ठस्थ हो सके। उस समय भार्या और वैतालीय छन्द सामान्य व्यवहार में आते रहे होंगे। धम्मपद से मालूम होता है कि श्लोक का भी व्यवहार होता था। बुद्धवचन का अर्थ बताने के लिए धर्मधरों को एक मौखिक टीका की आवश्यकता पड़ी। यह 'अर्थ' था। जब बौद्धधर्म का प्रचार मगध के बाहर हुआ, तब इन टीकाओं की और भी आवश्यकता अनुभूत हुई होगी, क्योंकि मूल को ठीक से समझने में अन्य जनपदों के लोगों को कठिनाई होती होगी। प्रारम्भ में ये टीका विभिन्न रही होंगी । पीछे से इनका रूप स्थिर हो गया होगा और यह भी शिक्षा का अंग हो गया होगा। इस प्रकार प्रवचन की समृद्धि हुई। नये प्राचार्यों का मत कुछ वस्तुत्रों पर प्राचीनों से भिन्न था। जो इन परिवर्तनों के विरुद्ध थे, वे बुद्धवचन के श्राधार पर इनका विरोध करना चाहते थे। इस प्रकार अर्थ को धर्म की प्रामाणिकता प्रदान करने की आवश्यकता हुई । अाम्नाय के अनुसार प्रथम महासंगीति ने श्रागम का संग्रह किया । इस प्रकार बागम में गद्य की प्रधानता हो गई और धीरे-धीरे गेथ्य, गाथा, वेदल जो पृथक् अंग थे विलुप्त हो गये। संस्कृत भागम में 'वेदल्ल' का वैपुल्य हो गया । लोग 'वेदल्ल' के मूल अर्थ को भूल गये और बड़े आकार के सूत्रों को वैपुल्य कहने लगे । धीरे-धीरे अंगों का विभाजन भी लुप्त हो गया और इसका स्थान सूत्रों के श्राकार के अनुसार वर्गीकरण ने लिया । 'सूत्र' एक अंग मात्र न रहा । इसका एक पिटक ही हो गया और अंगों के स्थान में निकाय या श्रागम हो गये । खुद्दक निकाय में ही कुछ पुराने अंग रह गये; यथा जातक, उदान, इतिवृत्तक । यह पालि-श्रागम की कथा है। यह संग्रह प्राचीन है। पीछे नत्र बौद्ध-धर्म मध्यदेश में फैला, जहाँ संस्कृत का प्राधान्य था, प्रवचन का संग्रह संस्कृत में हुआ। सर्वास्ति- वादियों का अपना सूत्रपिटक था। यह पालि-पिटक से बहुत कुछ मिलता जुलता था। इसके अंश ही पाये गये हैं | सर्वास्तियादी चार श्रागम मानते थे-दीर्घ, मध्यम, संयुक्त, तथा एकोत्तर । सर्वास्तिवादियों के अभिधर्म-पिटक में सात ग्रन्थ हैं । ये ज्ञानप्रस्थान और उसके छ: पाद है। काल्यायनीपुत्र का ज्ञानप्रस्थान, धर्मस्कन्धपाद, संगीतिपर्यायपाद, प्रतिपाद, विज्ञानकायपाद, प्रकरणपाद, तथा धातुकायपाद । श्रागे चलकर ज्ञानप्रस्थान की एक टीका लिखी गई, बिसे