पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पंचम अध्याय द्वेषचरित पुरुष के शयनासन को न बहुत ऊँचा और न बहुत नीचा होना चाहिये; उसे छाया और जल से सम्पन्न तथा सुवासित होमा चाहिए । उसका भूमि-तल समुज्ज्वल, मृदु, सम और स्निग्ध हो; ब्रह्मविमान के तुल्य सुन्दर तथा कुसुममाला और नानावर्ण के चैल-वितानों से समलंकृत हो और जिसके दर्शनमात्र से चित्त को श्राहाद प्राप्त उसको श्रमण के अनुरूप हलका सुरक्त और शुद्ध वर्ण का रेशमी या सूक्ष्म क्षोमवस्त्र धारण करना चाहिये। उसका पात्र मणि की तरह चमकता हुआ और लोहे का होना चाहिये। भिक्षाचार का मार्ग भयरहित, सम, सुन्दर तथा ग्राम से न बहुत दूर और न बहुत निकट ही होना चाहिये। जिस ग्राम में वह भिन्नाचर्या के लिए जाय वहाँ के लोग श्रादरपूर्वक उसको भोजन के लिए अपने घर पर निमन्त्रित करें और श्रासन पर बैठाकर अपने हाथ से भोजन करायें। परोसनेवाले पवित्र और मनोज वस्त्र धारण कर, अाभरणों से प्रतिमण्डित हो अादर साथ भोजन परोसें। भोजन वर्ण, गन्ध और रम से सम्पन्न हो और हर प्रकार हो। ईर्यापथ में उसके लिए. शय्या या निषद्या उपयुक्त है अर्थात् उसे लेटना या बैठना चाहिए। नीलादि वर्ण कमियों में जो पालम्बन मुपरिशुद्ध वर्ण का हो वह उसके लिए उपयुक्त है। मोहचरित पुख्य का श्रावास खुले हुए स्थान में होना चाहिये; जहाँ बैठकर वह सब दिशात्रों को विवृत रूप से देव सके। चार ईपिथों में से इसके लिए. चंक्रमण ( टहलना) उपयुक्त है, आलम्बनों में शराबमात्र या शूर्पमात्र क्षुद्र आलम्बन इसके लिए उपयुक्त नहीं है, क्योंकि घिरी जगह में चिन और भी मोह को प्राप्त होता है। इसलिए, मोहचरित पुरुष का कसिण-मण्डल विपुल होना चाहिये। शेष बातों में मोहचरित पुरुष, द्वेषचरित पुरुष के समान हैं; जो कुछ द्वपरित पुरुष के उपयुक्त बताया गया है वह सब श्रद्धाचरित पुरुष के लिए भी उपयुक्त है। पालम्बनों में श्रद्धाचरित पुरुष के लिए अनुस्मृति-स्थान' भी उपयुक्त हैं । बुद्धिचरित पुरुष के लिए. श्रावासादि के विषय में कुछ भी अनुपयुक्त नहीं है । वितर्क- चरित पुरुष के लिए दिशाभिमुख, खुला हुश्रा श्रारास उपयुक्त नहीं है। क्योंकि ऐसे स्थान से उसको अाराम, वन, पुष्करिणी आदि दिखलाई देंगी, जिससे चित्त का विक्षेप होगा और वितर्क की वृद्धि होगी। इसलिए, उसे गम्भीर पर्वत-विवर में रहना चाहिये । इसके लिए विपुल श्रालम्बन भी उपयुक्त न होगा; क्योंकि यह भी वितर्क की वृद्धि में हेतु होगा । उसका श्रालम्बन तुद्र होना चाहिये। शेष बातों में वितरित पुरुष रागचरित पुरुष के समान है । प्राचार्य को चर्या के अनुकूल कर्मस्थान का ग्रहण कराना चाहिये। इस संबन्ध में ऊपर संक्षेप में ही कहा गया है। अब विस्तार से कहा नायगा। १. मनुस्मृति-स्थान--'अनुस्मृति' का मर्थ है 'बार बार स्मरण' अथवा 'अमुरूप स्मृति' । जो स्मृति उचित स्थान में प्रवर्तित होती है वह योगी के अनुरूप होती है। मनुस्मृति के इस विषय है। इन्हें मनुस्मति स्थान कहते हैं।