पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गौर-धर्म-दर्शन कर्मस्थान चालीस है । वह इस प्रकार हैं-दस 'कसिण, दस अशुभ, दस अनुस्मृति, चार ब्रह्मविहार, चार श्रारूप्य, एक संज्ञा, एक व्यवस्थान । 'कसिय' योग-कर्म के सहायक अालम्बनों में से है । श्राक्क 'कसिण पालम्बनों की भावना करते हैं । 'कसिणों (=कृल ) पर चित्त को एकाग्र करने से ध्यान की समासि होती है । इस अभ्यास को 'कसिण कम्म' कहते हैं । 'कसिण' दस हैं। विशुद्धिमार्ग के अनुसार कसिण' इस प्रकार हैं-पृथ्वीकसिण, अपक , तेजक', वायुक', नीलक', पीतक', लोहितक', अवदातक', बालोकक', परिच्छिन्नाकाशक', । मधिमम तथा दीघनिकाय की सूची में श्रालोक और परिच्छिन्नाकाश के स्थान में श्राकाश और विज्ञान परिगणित हैं। अशुभ दस हैं--उधुमातक ( भाथी को तरह फूला हुअा मृत शरीर ), विनीलक (मृत शरीर सामान्यतः नीला हो जाता है ), विपुबक (जिसके भिन्न स्थानों से पीप विस्यन्दमान होती है ), विच्छिद्दक (द्विधा छिन्न शवशरीर), विक्खायितफ ( वह शव जिसे कुत्ते और शृगालों ने स्थान स्थान पर विविध रूपसे खाया हो), विक्वित्तक (वह शव जिसके अङ्ग इधर-उधर छितरे पड़े हो), हतविक्खित्तक (वह शव जिसके अङ्ग-प्रत्यङ्ग शस्त्र से काट कर इधर-उधर छितरा दिये गए. हों), लोहितक (रक्त से सनी लाश), पुलुक्क (कृमियों से परिपूर्ण शव), अट्ठिक (अस्थि-पञ्जर मात्र )। अनुस्मृति दस हैं---बुद्धानु, धर्मान', सङ्घानु', शीलानु', म्यागानु', देवतान', कायगताम्मृति, मरणानुम्मृति, आनापानम्मृति', उपशमानुस्मृति । मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा यह चार ब्रह्मविहार हैं । श्राकाशानन्यायतन, विज्ञानानन्यायतन, श्राकिञ्चन्यायतन, नवसंज्ञाना- संज्ञायतन यह चार मारूप्य है । श्राहार में प्रतिकुल संज्ञा एक मंशा है । चार धातुओं का व्यवस्थान एक व्यवस्थान है 1 समाधि के दो प्रकार है---उपचार और अर्पणा' । जब तक ध्यान क्षीण रहता है और अर्पणा की उत्पत्ति नहीं होती; तब तक उपचार-समाधि का व्यवहार होता है। उपचार-भूमि में नीवरणों का प्रहाण होकर चित्त समाहित होता है । पर वितर्क, विचार श्रादि पाँच अङ्गों का प्रादुर्भाव नहीं होता । जिस प्रकार ग्राम का समीपवत्तीं प्रदेश ग्रामोपचार कहलाता है उसी प्रकार अर्पणा-समाधि के समीपयत्ती होने के कारण उपचार संज्ञा पड़ी । उपचार-भूमि में श्रङ्ग मजबूत... १. तुझमा कीजिये-"प्रपदनविधारणाभ्यां वा प्रायस्य' [योग वर्शन, समाधिपाद, २. तुलना कीजिए-मन्त्रीकरणामुहितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित. प्रसादनम् ' [योग दर्शन, समाधिपाद सू० ३५] । ३. अपंखा (पालि = 'अप्पन') "सम्पयुत्तमम्मे प्रारम्मणे अप्पेन्तो विय परततीति वितको अप्पना" [परमपमम्जूलाटीका ] |