पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१४३

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पंचम अध्याय नहीं होते; पर अर्पणा में अङ्गों का प्रादुर्भाव होता है और वह सुदृढ़ हो जाने हैं । इसलिए यह समाधि की प्रतिलाम-भूमि है। जिस प्रकार बालक जब बड़े होकर चलने की कोशिश करता है तो प्रारम्भ में अभ्यास न होने के कारण खड़ा होता है और फिर बार बार गिर पड़ता है उसी प्रकार उपचार-समाधि के उत्पन्न होने पर चित्त कभी निमित्त को श्रालम्बन बनाता है तो कमी भवाङ्ग में अवतीर्ण हो जाता है। पर अर्पणा में श्रङ्ग सुदृढ़ हो जाते हैं; सारा दिन, सारी रात, चित्त स्थिर रहता है । चालीम कर्मस्थानों में से दस कर्मस्थान-बुद्ध-धर्म-सद्ध-शील- त्याग-देवता यह छः अनुस्मृतियाँ मरणानुस्मृति, उपशमानुस्मृति, श्राहार के विषय में प्रतिकूल संज्ञा और चतुर्धातु-व्यवस्थान--उपचार-समाधि का और बाकी तीम अर्पणा-समाधि का श्रानयन करते हैं । जो कर्मस्थान अर्पणा-समाधि का आनयन करते हैं; उनमें से दस 'कसिण' और धाना- पानम्मृति चार ध्यानों के श्रालम्बन होने हैं; दम अशुभ और कायगतास्मृति प्रथम ध्यान के श्रालम्बन हैं। पहले तीन ब्रह्म-विहार तीन ध्यानों के और चौथा ब्रह्म-विहार और चार श्रारूप्य चार ध्यानों के पालम्बन हैं | पहले ध्यान के पाँच अङ्ग होने है -वितर्क, विचार, प्रीति, सुख, एकाग्रता ( समाधि )। इसे सक्तिक-सविचार कहते हैं । ध्यानों की परिगणना दो प्रकार से है । चार ध्यान या पांच ध्यान माने जाते हैं । पाँच की परिगणना के दूसरे ध्यान में वितर्क का अतिक्रम होता है पर विचार रह जाता है । इसे अस्तिन-विचार मात्र कहते हैं। पर चार की परिगणना के द्वितीय ध्यान में और पाँच की परिंगणना के तृतीय ध्यान में वितर्क और विचार दोनों का अतिक्रम होता है; केवल प्रीति, सुग्व और समाधि अवशिष्ट रह जाते हैं । पाँच की परिगणना के चतुर्थ ध्यान में और घर की परिगणना के तृतीय ध्यान में प्रीति का अतिक्रम होता है; केवल मुम्ब और समाधि अशिष्ट रह जाते हैं। दोनों प्रकार के अन्तिम ध्यान में मुग्य का अतिक्रम होता है । अन्तिम ध्यान की समाधि उपेना-सहगत होती है । इस प्रकार तीन और चार ध्यानो के पालम्बन-स्वरूप काम्थानों में ही अङ्गका समति- क्रम होता है क्योंकि वितर्क-विचारादि ध्यान के अङ्गों का अतिक्रम कर उन्हीं श्रालम्बनों में द्वितीयादि ध्यानों की प्राप्ति होती है। यही कथा चतुर्थ ब्रह्म-विहार की है । मैत्री आदि बाल- म्बनों में सौमनस्य का अतिक्रमण कर चतुर्थ ब्रह्म-विहार में उपेक्षा की प्राप्ति होती है । चार श्रारूप्यों में पालम्बन का समतिक्रम होता है । पहले नौ कसिणों में से किसी-किसी का अति- क्रमण करने से ही अाकाशानन्यायतन की प्राति होती है। श्राकाश आदि का अतिक्रमण कर विज्ञानानन्यायतन आदि की प्राप्ति होती है। शेष अर्थात् इक्कीस कर्मस्थानों में समतिक्रम नहीं होता । इस प्रकार कुछ में अङ्ग का अतिक्रमण और कुछ में श्रालम्बन का अतिक्रमण होता है । इन चालीस कर्मस्थानों में से केवल दस कसिणों की वृद्धि करनी चाहिये। क्योंकि जितना स्थान कसिण द्वारा व्याप्त होता है उतने ही अवकाश में दिव्य श्रोत्र से शब्द सुना जाता है, दिव्य चक्षु से रूप देखे जा सकते हैं और परचित्त का ज्ञान हो सकता है। पर कायगता स्मृति और दस अशुभों की वृद्धि नहीं करनी चाहिये। क्योंकि इससे कोई लाभ नहीं है । यह परिच्छिनाकार में ही उपस्थित होते हैं। इसलिए इनकी वृद्धि से कोई अर्थ नहीं निकलता। इनकी वृद्धि किये बिना भी काम-राग का ध्वंस होता है। शेष कर्मस्थानों की भी वृद्धि नहीं