पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१५४

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बौद्ध धर्म-दर्शन गोत्रभू कहलाती है। यह चेतना (=जवन ) काम-तृष्णा के विषयों के विशेष रूप और अनु- त्तरधर्मों के साम्परायिक रूप की सीमा पर स्थित है। इस प्रकार में ये सब संजाय सामान्य रूप से सब जयनों की है। यदि विशेषता के साथ कहा जाय तो पहला जन परिकर्म', दूसरा 'उपचार, तीसरा 'अनुलोमः, चौथा 'गोत्रभू', या पहला 'उपचार', दूसरा 'अनुलोम', तीसरा 'गोत्रभू, और चौथा या पाँचवाँ 'अर्पणा' है। जिसकी बुद्धि प्रस्वर है उसकी चौथे जवन में अर्पणा की सिद्धि होती है; पर जिसकी बुद्धि, मन्द उसको पांचवें जश्न में अपना-चित्त का लाभ होता है। चौथे या पांचवें जवन में ही अर्पणा की सिद्धि होती है । तपश्चात् चेतना भवाङ्ग में अवतीर्ण होती है । अर्पणा का कालपरिच्छेद एक चित्त-क्षण है, तदनन्तर भवाङ्ग में पात होता है। पीछे भवाङ्ग का उपच्छेद कर ध्यान की प्रत्यवेना लिए जित्लावर्जन होता है; तत्पश्चात् ध्यान की परीक्षा होती है। काम और अकुशल के परित्याग से ही प्रथम ध्यान का लाभ होता है, यह प्रथम ध्यान के प्रतिपक्ष हैं । प्रथम ध्यान में विशेष कर काम-धातु का अतिक्रमण होता है। काम से 'बस्नु- काम' का श्राशय है । जो बस्तु ( जैसे, प्रिय-मनोरम-रूप ) काम का उद्दीपन कर वह बन्नुकाम है, किसी वस्तु के लिए, अभिलार, राग तथा लोभ के प्रमद नेशकाम' मा लान है । श्रकुशल से संशकाम तथा अन्य अकुशल का श्राशय है। काम के परिबाग रे काय- विक और अकुशल के विवर्जन से चित्त-विवेक सूचित होता है। पहले से नृगा आदि विषय का परित्याग और दूमरे से क्लेश का परित्याग सूचित होता है। पहले से काम-मुग्ध का परित्याग और दूसरे से ध्यान-सुग्व का परिग्रह प्रकाशित होता है। पहले से चपल भाव के अपाय (=दुर्गति-भूमि चतुर्विध है--निरय (= नरक ), तिर्थक्-योनि, प्रेतविषय, असुरकाय। काम-सुगति-भूमि सप्तविध है-मनुष्य, छः देवलोक (चानुमाहाराजिा, त्रयस्त्रिंश, याम, तुषित, निर्माण-रति, परनिर्मित-वशी )। अपायभूमि और काम-सुगत-भूमि मिलकर कामावचर-भूमि (= कामधातु ) कहलाते हैं। इस प्रकार ग्यारह लोक काम-धानु अन्तर्गत है। काम-धातु के अपर रूपधातु है। रूप-धातु में सोलह स्थान हैं। पहले ध्यान में प्रा. पारिपय, ब्रह्म-पुरोहित और महाप्रसा. दूसरे स्थान में परीक्षाभ, अप्रमाणाय, और आमस्वरय; तीसरे ध्यान में परीत्त-शुभ, मप्रमाण-शुभ और शुभकरस्न, चौथे ध्यान में बृहरफला, असंहि-सत्व, शुन्द्रावास (शुद्धावास पाँच हैं-- अक्टि, अतप्प, सुदर्श, सुदर्शी, अकनिष्ठ ) हैं। मरूप-भूमि चार हैं-आकाशानन्स्यायतन-भूमि, विज्ञानानन्त्यायतन-भूमि, पाकिमन्या- थतन-भूमि और भवसंज्ञानासंज्ञायतन-भूमि । रूपाव चर कुशल केषक मानसिक कर्म है। यह भावमा-मय, अर्पणा-प्रास, और ध्यान के बङ्गों के भेद से पाँच प्रकार का है।