पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१५५

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पंचम अध्याय हेतु का परित्याग और दूसरे से अविद्या का परित्याग; पहले से प्रयोग-शुद्धि ( प्राणातिपातादि अशुद्ध प्रयोग का परित्याग ) और दूसरे से अध्याशय की शुद्धि. सूचित होती है । यद्यपि अकुशल धर्मों में ष्टि, मान अादि पाप भी संगृहीत है; तथापि यहाँ केवल उन्हीं अकुश न धमी से तापर्य है जो ज्यान के अङ्गों के विरोधी है। यहाँ अकुशल धर्मों से पाँच नीचरणों में ही श्राशय है। ध्यान के अङ्ग इनके प्रतिपन है और इनका विधात करते हैं । समाधि कामच्छन्द ' अभिनार, लोभ, नृगा।) का प्रतिपन है, प्रीति व्यापाद (= हिंमा ) का प्रतिपक्ष है, वितर्क का भगान- यान य-अकर्मण्यता ) प्रतिपक्ष है; मुन्त्र का प्रौद्धत्य- कोकृष्य ( =अनन्थिनता, बंद ) और विचार का विकल्या प्रतिपक्ष है, इस प्रकार काम, विवेक से कामच्छन्द का विष्कन्भन और अकुशल धर्मों के विवेक से शे। चार नीवरणों का विकम्भन होना है । पहले से लोभ (अकुशल-मूल ) और दूसरे से द्वेष-मोह, पहले से तृणा तथा समाप्रयुक्त अवस्था, दृमर से अविद्या तथा तमम्प्रयुक्त अवस्था का परित्याग सूचित होता है। यह पाँच नीवरण प्रथम-ध्याग के प्रदागा-अङ्ग है। जब तक इनका विष्कम्भन नहीं होना उन ध्यान का अपाद नहीं होता । ध्यान क्षण में अन्य अकुश ५ना का भी प्रहाग होता है; तथापि पृक्ति नवरण कान में विशेष रूप से अन्तराय उपस्थित करते हैं । इन पनि नीवरणों का परिचाग कर प्रथम ज्यान विनर्क, चार, प्रीति, मुख, और समाधि इन पाँच अङ्गों से समन्वागत होता है। श्रालम्बन के विषय में यह कल्पना शयद ऐमा है 'क्तिक' कहलाता है, अथवा अालम्बन के समीर चिन का प्रानएन नम्बन में चिन का प्रथम प्रवेश वितर्क कहलाता है। श्रान्नम्बन में वन का अविच्छिन्न-प्रवृा विचार है, कि विचार का पूर्वगामा है। वितर्क चित्तका प्रथम अभिनियात है। घण्टे के अभियान से जो शन्द उत्पन्न होता है, वह वितर्क के समान है। इसका जो अनुरव होता है, यह विचार के समान है । जिस प्रकार अाकाश में उड़ने की इच्छा करनेवाला पड़ी पक्ष-विक्षेप करता है, इसी प्रकार वितर्क का प्रथमोत्पत्ति के काल में विचार की वृनि शान्त होता है; उममें चित्त का अधिक परिसदन नहीं होता। विचार आकाश में उड़ते हुए पनी के पद-प्रसारण या कमल के ऊपरी भाग पर भ्रमर के परिभ्रमण के समान है। प्रीति, काय और चित्त के तपण, परितोषण को कहते हैं। प्रीति प्रणीत रूप से काम में व्याप्त होती है और इसका उत्कृष्ट भाव होता है। 'प्रीति' पांच प्रकार की है.-१. तुद्रिका-प्रीति, २. क्षणका-नीति, ३. अवान्तिका-प्राति, ४. उहँगा-प्रीति, ५. स्फरणा- प्रीति । बुद्रिका-प्रीति शरीर को केवल रोमाञ्चित कर सकती है । क्षणिका-प्रोति क्षण क्षण पर होनेवाले विद्युत्पात के समान होती है। जिस प्रकार समुद्रतट पर लहरें टकराती हैं मी प्रकार .. "मिदं वितक्कन दिसमिदन्ति प्रारम्मणस्स परिकप्पमन्ति" [परमत्वसधूसा टीका