पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१६७

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वचम अध्याय दान दिये मैं अन्नग्रहण न करूंगा । अपने दिए हुए दान को ही श्रालम्बन बनाकर वह सोचता है कि "अहो ! लाभ है मुझे, जो मत्सरमलों से युक्त प्रजा के बीच में भी विगत-मत्सर हो विहार करता हूँ। मैं मुक्तत्याग, प्रयतपाणि, व्युत्सर्गरत, याचयोग और दान-संविभागरत हूँ"। इस विचार के कारण उसका चित्त प्रीति-बहुल होता है और उसे उपचार-समाधि प्राप्त होती है । देवतानुस्मृति-देवतानुस्मृति में योगी आर्यमार्ग में स्थिर रहकर चातुर्महारानिक श्रादि देवों को साक्षि बनाकर अपने श्रद्धादि गुणों का तथा देवताओं के पुण्य-सम्भार का ध्यान करता है । इस अनुस्मृति से योगी देवताओं का प्रिय होता है। इसमें भी वह उपचार-समाधि को प्राप्त करता है। मरणासुस्मृति-एक भव-पर्यापन्न जीवितेन्द्रिय के उपरछेद को मरण कहते है। अर्हतों का वर्तदुःख-समुच्छेद-मरण या संस्कारों का क्षणभङ्ग-मरण, यहाँ अभिप्रेत नहीं है । जीवितेन्द्रिय के उपच्छेद से जो मरण होता है वही यहां अभिप्रेत है। उसकी भावना करने के इच्छुक योगी एकान्त स्थान में जाकर 'मरण होगा, बीवितेन्द्रिय का उपच्छेद होगा', ऐसा विचार करता है । 'मरण-मरण' इस प्रकार बार-बार चित्त में विचार करता है । मरणानुस्मृति में योग्य बालम्बन को चुनना चाहिये । इष्टजनों के मरणानुस्मरगा से शोक होता है, अनिष्ट- जनों के मरणानुस्मरण से प्रामोद्य होता है, मध्यस्थजनों के मरणानुस्मरण से संवेग नहीं होता। अपने ही मरण के विचार से सन्त्रास उत्पन्न होता है। इसलिएजिनकी पूर्व सम्पति और वैभव को देखा हो, ऐसे सत्वों के मरण का विचार करना चाहिये, जिससे स्मृति, संवेग और शान उपस्थित होता है । इम चिन्तन में उप-वार-समाधि की प्राप्ति होती है। मरणानुस्मृति में उपयुक्त योगी सतत अप्रमत रहता है, सर्व भवों से अनभिरनि-संशा को प्राप्त करता है, जीवित की तृष्णा को छोड़ता है और निर्वाण को प्राप्त करता है। कायगतानुस्मृति 1~ यह अनुस्मृति बहुत महत्त्व की है। बुद्धघोष के अनुसार यह केवल बुद्धों से ही प्रवर्तित और सर्वतीथिकों का अविषयभूत है । भगवान् ने भी कहा है-"भिक्षुओं ! एक धर्म यदि भावित, बहुलीकृत है तो महान् संवेग को प्राप्त कराता है, महान् अर्थ को, योगक्षेम को, स्मृति-संप्रजन्य को, शान-दर्शन-प्रतिलाभ को, दृष्ट-धर्म-सुस्त्र- विहार को, विद्या-विमुक्ति-फल-साक्षात्करण को प्राप्त कराता है। कौन है वह एक एकधर्म ! कायगत-स्मृति ही वह धर्म है। जो कायगत-स्मृति को प्राप्त करता है वह अमृत को प्राप्त करता है ।" ( अनु० ११४३) कायगता स्मृति को प्राप्त करने का इच्छुक योगी इस शरीर को पादतल से केश-मस्तक तक और त्वचा से अस्थियों तक देखता है । इस शरीर में केश, लोम, नख, दन्त, त्वचा, मांस, न्हाक, अस्थि, अस्थिमज, वक, हृदय आदि बत्तीस कर्मस्थानों को देखकर अशुचि-भावना को प्राप्त करता है। ये कर्मस्थान आचार्य के पास ग्रहण करके इन बत्तीस कर्मस्थानों का अनुलोम-प्रतिलोम कम से बार-बार मन-वचन से स्वाध्याय करता है। फिर उन कर्मस्थानों के वर्ण-संस्थान, परिच्छेद श्रादि का चिन्तन करता है । इन कर्मस्थानों का अनुपूर्व से, नातिशीघ्र