पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१८२

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बौद्ध धर्म दर्शन १६. चौथे प्रकार में योगी प्रतिनिसर्गानुपश्यना से समन्वागत हो श्वास छोड़ना और श्वास लेना सीखता है । प्रतिनिसर्ग (=त्याग ) भी दो प्रकार का है-१. परित्याग-प्रतिनिसर्ग और २. प्रस्कन्दन-प्रतिनिसर्ग । विपश्यना और मार्ग को प्रतिनिसर्गानुपश्यना कहते हैं। विपश्यना द्वारा योगी अभिसंस्कारक स्कन्धों सहित क्लेशों का परित्याग करता है, तथा संस्कृत-धर्मों का दोष देखकर तद्विपरीत-असंस्कृत निर्वाण में प्रस्कन्दन अर्थात् प्रवेश करता है । इस तरह १६ प्रकार से आनापान-स्मृति-समाधि की भावना की जाती है। चार-चार प्रकार का एक-एक वर्ग है । अन्तिम वर्ग शुद्ध उपासना की रीति से उपदिष्ट हुआ है; शेष वर्ग शमथ तथा विपश्यना, दोनों रीतियों से उपदिा हुए हैं। [शमथ लौकिक-समाधि को कहते हैं; विपश्यना एक प्रकार का विशिष्ट ज्ञान है, इसे लोकोत्तर-समाधि भी कहते हैं । ] श्रानापान-स्मृति-भावना का जब परमोत्कर्ष होता है तब चार स्मृत्युपस्थापन का परिपूरण होता है । स्मृत्युपस्थापनाओं के सुभाक्ति होने से सात बोध्यङ्गों का (स्मृति, धर्मवित्रय, वार्य, प्रीति, प्रश्रब्धि, समाधि, उपेक्षा ) पूरण होता है और इनके पूरण से मार्ग और फल का अधि- गम होता है। इस भावना की विशेषता यह है कि मृत्यु के समय जब श्वास-प्रश्वास निरुद्ध होते हैं, तब योगी मोह को प्राप्त नहीं होता। मरण समय के अन्तिम आश्वास-प्रश्वाम उसको विशद और विभूत होते हैं। जो योगी श्रानापान-स्मृति की भावना भली प्रकार करता है उसको मालूम पड़ता है कि मेरा श्रायु-संस्कार अब इतना अवशिष्ट रह गया है । यह जानकर वह अपना कृत्य संपादित करता है और शान्तिपूर्वक शरीर का परित्मा । करता है । चार ब्रह्म-विहार भुदिता और उपेक्षा यह चार चित्त की सर्वोत्कृष्ट और दिव्य अवस्थायें हैं । इनको 'ब्रह्म-विहार कहते हैं । चित्त-विशुद्धि के यह उत्तम साधन हैं । जीवों के प्रति किस प्रकार सम्यक् व्यवहार करना चाहिये इसका भी यह निदर्शन है । जो योगी इन चार वहा- बिहारों की भावना करते हैं उनकी सम्यक-प्रतिपत्ति होती है। वह सब प्राणियों के हित-सुख की कामना करता है । वह दूमरों के दुःखों को दूर करने की चेष्टा करता है। जो सम्पन्न है उसको देखकर वह प्रसन्न होता है, उनसे ईर्ष्या नहीं करता। सब प्राणियों के प्रति उसका सम- भाव होता है, किमी के साथ वह पक्षपात नहीं करता। संक्षेप में-इन चार भावनाओं द्वारा राग, द्वेष, ईर्ष्या, असूया, आदि चित्त के मलों का क्षालन होता है। योग के अन्य परिकर्म केवल श्रात्म-हित के साधन है, किन्तु यह चार ब्रह्म-विहार परहित के भी साधन हैं। प्रार्य-धर्म के ग्रन्थों में इन्हें 'अप्रामाण्य' या 'अप्रमाण' भी कहा है। क्योंकि इनकी इयत्ता नहीं है । अपरिमाण जीव इन भावनाओं के पालम्बन होते है। जीवों के प्रति स्नेह और सुहृद्भाव प्रवर्तित करना मैत्री है । मैत्री की प्रवृत्ति परहित- साधन के लिए. है । जीवों का उपकार करना, उनके सुख की कामना करना, द्वेष और द्रोह का मैत्री, करुणा,