पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१८४

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बौदू-धर्म-दर्शन मैत्री-भाव-भावना का विशेष कार्य देष (व्यापाद) का प्रतिपात करना है । करुणा- भावना का विशेष कार्य विहिंसा का प्रतिघात करना है । मुदिता-भावना का विशेष कार्य अरति, अप्रीति का नाश करना है और उपेक्षा-भावना का विशेष कार्य राग का प्रतिघात करना है। प्रत्येक भावना के दो शत्रु है-१. समीपवर्ती, २. दूरवर्ती । मैत्री-भावना का समीपवर्ती शत्रु राग है। राग की मैत्री से समानता है । व्यापाद उसका दूरवर्ती शत्रु है । दोनों एक दूसरे के प्रतिकूल है। दोनों एक साथ नहीं रह सकते। व्यापाद का नाश करके ही मैत्री की प्रवृचि होती है । करुणा-भावना का समीपवती शत्रु शोक, दौमनस्य है। जिन जीवों की भोगादि-विपत्ति देखकर चित्त करुणा से श्राद हो जाता है, उन्हीं के विषय में तन्निमित्तशोक भी उत्पन्न हो सकता है । यह शोक, दौर्मनस्य पृथग्जनोचित है, बो संसारी पुरुष है वह इष्ट , प्रिय, मनोरम और कमनीय रूप की अप्राप्ति से और प्राप्त-सम्पत्ति के नाश से उद्विग्न और शोकाकुल हो जाते हैं। जिस प्रकार दुःख के दर्शन से करुणा उत्पन्न होती है उसी प्रकार शोक भी उत्पन्न होता है। शोक करुणा-भावना का श्रासन्न शत्रु है । विहिंसा दूरवर्ती शत्रु है । दोनों से भावना की रक्षा करनी चाहिये । पृथग्जनोचित सौमनस्य मुदिता-भावना का समीपवर्ती शत्रु है। जिन जीवों की भोग- सम्पनि देखकर मुदिता की प्रवृत्ति होती है उन्हीं के विषय में तनिमित्त पृथग्जनोचित सौमनस्य भी उत्पन्न हो सकता है । वह इष्ट, प्रिय, मनोरम और कमनीय रूपों के लाभ से संसारी पुरुप की तरह प्रसन्न हो जाता है । जिस प्रकार सम्पत्ति-दर्शन से नुदिता की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार पृथम्बनोचित सौमनस्य भी उत्पन्न होता है । यह सौमनस्य मुदिता का अासन्न-शत्रु है । अरति, अप्रीति दूरवर्ती-शत्रु हैं । दोनों से भावना को सुरक्षित रखना चाहिये। अचान-सम्मोह प्रवर्तित उपेक्षा उपेन्म-भावना का आसन्न-शत्रु है। मूढ़ और अज पुरष, जिसने ब्लेशों को नहीं जीता है, जिसने सब नेशों के मूलभूत सम्मोह के दोष को नहीं जाना है और जिसने शास्त्र का मनन नहीं किया है, वह रूपों को देखकर उपेक्षा-भाव प्रदर्शित कर सकता है, पर इस सम्मोहपूर्वक उपेक्षा द्वारा नेशों का अतिक्रमण नहीं कर सकता। जिस प्रकार उपेक्षा भावना गुण-दोप का विचार न कर केवल उदासीन-वृत्ति का अवलम्बन करती है, उसी प्रकार अज्ञानोपेक्षा जीवों के गुण-दोष का विचार न कर केवल उपेक्षावश प्रवृत्त होती है । यही दोनों की समानता है। इसलिए यह अज्ञानोपेक्षा उपेक्षा-भावना का अासन्न-शत्रु है । यह अशानोपेक्षा पृथग्बनोचित है । राग और द्वेष इस भावना के दूरवर्ती शत्रु है । दोनों से भावना- चित्त की रक्षा करनी चाहिये । सब कुशल-कर्म इच्छा-मूलक है। इसलिए चारों ब्रह्म-विहार के आदि में इच्छा है, नीवरण (= योग के अन्तराय ) श्रादि लेशों का परित्याग मध्य में है, और अर्पणा-समाधि पर्यवसान में है । एक जीव या अनेक प्रज्ञप्ति रूप में इन भावनाओं के पालम्बन है। श्रालम्बन की वृद्धि क्रमशः होती है । पहले एक आवास के जीवों के प्रति मावना की जाती है । अनुक्रम से पालम्बन की वृद्धि कर एक प्राम, एक जनपद, एक राज्य, एक दिशा, एक चक्रवाल के बीवों के प्रति भावना होती है।