पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१८५

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पंचम मध्याय ३७ मत्र क्लेश, द्वेप, मोद, राग पाक्षिक है। इनसे चित्त को विशुद्ध करने के लिए यह चार ब्रह्म-विहार उत्तम उपाय हैं । जीवों के प्रति कुशल-चिच की चार ही वृत्तियां हैं- दूसरों का हित-साधन करना, उनके दुश्व का अपनयन करना, उनकी सम्पन्न अवस्था देखकर प्रसन्न होना और सब प्राणियों के प्रति पक्षपात-रहित और समदर्शी होना । इसीलिए ब्रह्म-विहारों की संख्या चार हैं । जो योगी इन चारों की भावना चाहता है उसे पहले मैत्री-भावना द्वारा जीवों का हित करना चाहिये। तदनन्तर दुःख से अभिभूत बीवों की प्रार्थना सुनकर करुणा-भावना द्वारा उनके दुःख का अपनयन करना चाहिये । तदनन्तर दुःखी लोगों की सम्पन्न अवस्था देव- कर मुदिता-भावना द्वारा प्रमुटित होना चाहिये और तत्पश्चात् कर्तव्य के अभाव में उपेना-भारना द्वारा उदासीन-वृत्ति का अश्लम्ब करना चाहिये। इसी क्रम से इन भावनाओं की प्रवृत्ति होती है अन्यथा नहीं। यद्यपि चारों श-विहार अप्रमाण है तथापि पह तीन केवल प्रथम तीन नों का उत्पाद करते हैं और चौथा ब्रहा-विहार अन्तिम ध्यान का ही उत्पाद करता है। इसका कारण यह है कि मैत्री, करुणा और मुदिना, दौर्मनस्य-संभूत, व्यापाद विहिंसा और अरति के प्रतिपन्न होने के कारण सौमनस्य-हित नहीं होती। मौमनस्य महित होने के कारण इनमें सौमनस्य- विरहित उपेक्षासहगत चतुर्थ-ध्यान का उत्पाद नहीं हो सकता । उपेक्षा-वेदना से गंयुक्त होने के कारण केवल उपेक्षा ब्रह्म-विहार में अन्तिम-ध्यान का लाभ होता है। चार अरूप-व्यान चार ब्रह्म-विहारों के पश्चात् बार अरूप-कर्मस्थान उद्दिष्ट हैं। अरूप-अायतन चार है--आकाशानन्त्यायतन, विज्ञानानन्यायतन, प्राकिञ्चन्यायतन और नैवसंज्ञानासंज्ञायतन । चार रूपयानों की प्राशि होने पर ही अलर-व्यान की प्रानि होती है, करजरूप काय में और इन्द्रिय तथा उनके विस्य में दोष देखकर रूर का समतिकम करने के हेतु से यह ध्यान किया जाता है । चौथे ध्यान में कमिग-रूप रहता है । उम कसिष-रूप कर समतिक्रम इस ध्यान में होता है। जिस प्रकार कोई पुरुष मर्प को देखकर भयभीत ही भाग जाता है, और सर्प के समान दिखाई देनेवाले रस्जु अादि का भी निवारण चाहता है, उसी प्रकार योगी करज-रूप से भयभीत हो चतुर्थ-प्यान प्राप्त करता है, जहाँ करजरूप से समतिक्रम होता है, लेकिन उसके प्रतिभाग-रूप कसिण-रूप में स्थित होता है। उस कसिण-रूप का निवारण करने की इच्छा से योगी अरूपध्यान को प्राप्त करता है, जहाँ सभी प्रकार के रूप का समतिक्रम संभव है। आकाशानन्स्यायतन में तीन संज्ञाओं का निवारण होता है :---रूप-संज्ञा अर्थात् बसष्टि सम्बन्धी विचार; प्रतित्र-संज्ञा अर्थात् इन्द्रिय और विषयों का प्रत्याघात-मूलक विचार; नानात्व-संशा अर्थात् अनेकविध रूप-शब्दादि-श्रालम्बनों का विचार । इन तीनों संक्षाओं का अनुक्रम से समतिकम, अस्तंगम, और अमनसिकार होने पर 'श्राकाश अनन्त है। ऐसी संशा उत्पन्न होती है । इसे श्राकाशानन्त्यायतन-ध्यान कहते हैं। परिच्छिन श्राकाश-कसिम को छोड़कर अन्य किसी कसिण को पालम्बन कर चतुर्थ- ध्यान को प्राप्त करने पर ही यह भावना की जाती है । कसिग पर चतुर्थ-ध्यान साध्य करने