पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/१९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

षष्ठ अध्याय क्लेशों का अन्त न हो सकेगा। हम आगे चलकर महायान के दर्शन एवं साधना का विस्तार से विचार करेंगे । यहाँ इतना कहना पर्याम होगा कि प्रज्ञा-यान के अन्तर्गत दो दार्शनिक विचार-पद्धतियों का उदय हुश्रा-मध्यमक और विज्ञानवाद। मध्यमक-वादी मानते थे कि सब वस्तु स्वभाव-शून्य हैं और विज्ञानवादी बाह्य-वस्तु-जात को अमत् और विज्ञान को मत् मानते थे और यह विश्वास रखते थे कि बोधिमन्य महायता करते हैं । महायान-वादियों को प्राचीन निकाय मान्य है, पर हीनया । के अनुयायी महायान के अन्यों को प्रामाणिक नहीं मानते। महायान-वादियों का कहना है कि महायान नवीन नहीं है और हीनयान के आगम ग्रन्थ ही महायान की प्रामाणिकता सिद्ध करते हैं । मध्यमक कारिका के वृत्तिकार चन्द्रकीर्ति का कहना है कि हीनयान के ग्रन्थों में भी शून्यता की शिक्षा मिलती है । हीनयान के ग्रन्थों में महा-वस्तु में दश-भूमि और पारमिता का भी वर्णन है । महायान के ग्रन्थ गाथा और संस्कृत में हैं। हीनयान के वैभाषिक-प्रस्थान के अन्य संस्कृत में है उनका विवरण "बौद्ध-संस्कृत- साहित्य के अध्ययन के प्रकरण में देंगे । लोकोत्तरवाद का पयवसान त्रिकायवाद में हुया जो महायान की विशेषता है, इसलिये अब त्रिकायवाद का उल्लेख करेंगे। त्रिकाय बाद पालि-निकाय में त्रिकाय-बाद नहीं है, किन्तु उसमें बुद्ध के तीन कायों में विशेष किया गया है :- चातुमहाभौतिक-काय, मनोमय-काय और धर्म काय | प्रथम काय पूतिकाय है । यह जरायुज-काय है । शाक्यमुनि ने माता का कुक्षि में इसी काय को धारण किया था। पालि में बुद्ध के निर्माण-काय का उल्लेख नहीं है। किन्तु चातुर्महाभौतिक-कार के विपक्ष में एक मनो- मय-काय का भी उल्लेग्य है ( मंयुत्त पृ० ९८२; दोष, २, पृ० १०६ ) । सर्वास्ति-वाद की परिभाषा में बुद्ध में नौगिकी और पारिणामिकी ऋद्धि थी । वह अपने सदृश अन्य-रूप निर्मित कर सकते थे और अपने काय का पारिदापन भी कर मकते थे | यथा ब्रह्मा का काय अधर देवों के असदृश है, वह अभिनिर्मित शरीर से उनको दर्शन देते हैं (दीघ २, पृ. २१२; कोश, ३,पृ. २६६) । इसलिए अवतंसक में बुद्ध की तुलना ब्रह्मा से करने हैं । पालि-निकाय में रूपी देव को मनोमय कहा है (मझिम १, ५१०, विनय २, १८५) में कहा है कि कोलियपुत्त कालकर मनोमय-काय में उत्पन्न हुआ है। बाह्य-प्रत्यय के बिना मनम से निष्पन्न, निर्वृत-काय मनोमय-काय है । विशुद्धि-मार्ग के अनुसार (पृ. ४०५) यह अधिष्ठान मन से निर्मित है यह अरूपी का संझामय-काय नहीं है। सर्वास्ति-वादी भी मनोमय-काय के देवों का रूपावचर मानता है । सौत्रान्तिक के मत से यह रूप र प्रारूण्य दोनों के हैं । अन्तराभव भी मनोमय कहलाता है, क्योंकि यह केवल मन से निर्मित है और शुक्र-शोणितादि किंचित् बाह्य का उपादान न लेकर इसका भाव होता है। योगा-चार के अनुसार-भाटी भूमि में काय मनोमय होता है, इसमें मन का वेग होता है; यह मन की तरह शीघ्रगमन करता है और इसकी गति अप्रतिहत होती है । सब श्रावक मनोमय-काय धारण कर सकते हैं ( योगशास्त्र,०)। मनो-