पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२०२

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बौर-धर्म-दान पारमिता को बुद्ध का धर्मकाय बताया है। प्रशा को एक स्थान पर तथागतो की माता भी कहा है। यह धर्मकाय रूपकाय के असदृश सर्वप्रपञ्च-व्यतिरिक्त है। यह 'शुद्धकाय है, क्योंकि यह प्रपञ्च या श्रावरण से रहित और प्रभास्वर है । इसको 'स्वभावकाय' भी कहा है। 'क्सोमा के अनुसार चार काय है और स्वभावकाय? धर्मकाय से भिन्न तथा अन्य भी अनुत्तर-शरीर है। अमृतकणिका का भी यही मत है कि धर्मकाय स्वामाविक-काय से भिन्न है । तत्वज्ञान से ही निर्वाण का अधिगम होता है। इसलिए कहीं-कहीं धर्म-काय को 'समाधि-काया भी कहा है। यह तत्त्वज्ञान या बोधि ही परमार्थ-सत्य है। संवृतिसत्य की दृष्टि से इसको शून्यता, तथता, भूत- कोटि और धर्मधातु कहते हैं। सब पदार्थ निःस्वभाव अर्थात् शून्य है; न उनकी उत्पत्ति है और न निरोध । यही परमार्थ-सत्य है । नागार्जुन माध्यमिक-सूत्र में कहते हैं अप्रतीत्यसमुत्पनो धर्मः कधिन्न विद्यते । यस्मात्तस्मादशून्योऽहि धमः कश्चिन्न विद्यते ।। [प्रकरण २४, श्लोक-१६] अर्थात् कोई ऐसा धर्म नहीं है जिसका उत्पाद हेतु-प्रत्यय-श न हो । इसलिए अशू-य धर्म कोई नहीं है। सब धर्म शून्य है अर्थात् निःस्वभाव है, क्योंकि यदि भावों की उत्पत्ति स्वभाव से हो तो स्वभाव हेनु-प्रत्यय-निरपेन होने कारण न अपर होता है और न उसका उच्छेद होता है; यदि भावों की उत्पत्ति हेतु-प्रत्यय-वश होती है तो उनका स्वभाव नहीं होता। इसलिए स्वभाव की कल्पना में अहेतुकत्व का अागम होता है और इसमें कार्य, कारण, कर्ता, करण, क्रिया, उत्पाद, निरोध और फल की बाधा होती है। पर जो स्वभाव-शव्यतावादी हैं उनके लिये किसी कार्य को वाधा नहीं पहुँचती, क्योंकि जो प्रतीत्यसमुत्पाद है वहीं शत्यता है अर्यात् स्वभाव से भावों का अनुत्पाद है । भगवान् कहते हैं- यः प्रत्ययैर्जायति सहजातो न तस्य उत्पादु स्वभावतोऽस्ति । यः प्रत्ययाधीनु स शून्य उक्तो य शू यतो जानति सोऽग्रमत्तः ।। [ मध्यमकवृत्ति, पृष्ठ ५०४] अर्थात् जिमकी उत्पत्ति प्रत्ययवश है, वह अजात है, उसका उत्पाद स्वभाव से नहीं हैं। जो प्रत्यय के अधीन है, वह शून्य है। जो शून्यता को जानता है, वह प्रमाद नहीं करता। 1. सर्व प्रपञ्चव्यतिरिको भगवतः स्वाभाविको धर्मकायः स एव चाधिगमरवभावो धर्मः। [बोधिचर्यावतारपम्मिका, ३] २. बोधिव॒दत्वमेकानेकस्वभावविविक्तमनुपमानिरुद्धमनुच्छेदमशाश्वतं सर्वप्रपन्चविनिर्मुक्तमा- काशप्रतिसमं धर्मकायाख्यं परमार्थतत्वमुख्यते । एतदेव च प्रज्ञापारमिता-शून्यता-सथता-भूत- कोटि-धर्मधास्वादिशब्देन संवृतिमुपादायाभिधीयते । [बोधिचर्यावतारपत्रिका, ०६, रखो० ३८]