पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२२०

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१३२ बौद्ध-धर्मांग भगवान् ने बनकाय के कल्याण और सुख के लिये तथा सद्धर्म की वृद्धि के लिए देवपुत्रों को प्रार्थना स्वीकार किया और भिक्षुओं को श्रामंत्रित कर 'अविडूरे निदाना (तुपित काय से न्युति से प्रारंभ कर सम्यगवान की प्राप्ति तक का काल 'अविदूरे निदान' कहलाता है ) की कथा से प्रारंभ कर बुद्धचरित का वर्णन सुनाने लगे। बोधिसत्व एक महाविमान में तुषित-लोक में निवास करते थे। बोधिसत्व ने क्षत्रिय-कुल में जन्म लेने का निश्चय किया । भगवान् ने बतलाया कि बोधिसत्व शुद्धोदन की महिषी माया देवी के गर्भ में उत्पन्न होंगे। वही बोधिसत्व के लिए उपयुक्त माता है । वह रूप-यौवन-सम्पन्न है', शीलक्ती और पतिव्रता है । परपुरुष का स्वप्न में भी ध्यान नहीं करती। जम्बूद्वीप में कोई दूसरी स्त्री नहीं है, जो बोधिसत्व के तुल्य महापुरुष का गभधारण करने में समर्थ हो । इसको दशसहस्र नागों का बल प्राप्त है। देवताओं की सहायता से बोधिसत्व ने महानाग कुअर के रूप में गर्भावक्रान्ति की। कुक्षिगत बोधिसत्व के निवास के लिए देवताओं ने एक रत्नव्यूह तैयार किया, जिसमें बोधिसत्व को दुर्गन्धयुक्त मनुष्या- श्रय में निवास न करना पड़े। श्राकृति और वर्ण में यह रनव्यूह अनुपम था। बोधिसत्व इस रत्नव्यूह में बैठे हुए अत्यन्त शोभित थे । माता की कोख में से बोधिसत्व ने समस्त-दिशात्रों को अपने तेज और वर्ण से अवभासित किया। बोधिसत्व के शरीर से दूर तक प्रभा निकलती थी। यदि कपिलवस्तु या अन्य किसी जनपद में किसी स्त्री या पुरुष को भूत का अावेश होता था तो बोधिसत की माता के दर्शनमात्र से उसको चेतना का पुनर्लाभ होर | जो लोग नाना रोग से पीड़ित होते थे उनके सिर पर बोधिसत्व की माता अपना दाहिना हाथ रखती थीं। इसी से उनकी व्याधि दूर हो जाती थी, यहाँ तक कि रोगियों को मायादेवी भूमि से तृण-गुल्म उठाकर देती थीं, उसी से रोगी निर्विकार होते थे । मायादेवी जब अपना दक्षिण पार्श्व देखती थीं तब उनको कुक्षिगत बोधिसत्व उसी प्रकार दिखलाई पड़ते थे जिस प्रकार शुद्ध श्रादर्श मण्डल में मुखमण्डल का दर्शन होता है। जिस प्रकार अन्तरिक्ष में चन्द्रमा तारागण से परिवृत हो शोभा को प्राप्त होता है, उसी तरह बोधिसत्त्व बत्तीस लक्षणों से अलंकृत थे। वह राग-द्वेष, और मोह की पापा से परिमुक्त थे । क्षुत्पिपासा, शीतोष्ण उनको किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुंचाते थे। नित्य दिव्य-पूरि का वाद होता था और नित्य सुन्दर दिव्य-पुष्पों की वर्षा होती थी। मानुष और अमानुष परस्पर हिंसा का भाव नहीं रखते थे। सत्व हृष्ट और तुष्ट थे। समय पर वृष्टि होती थी । तृण, पुप्प, और औषधियाँ समय पर होतो थी। राजगृह में सात रात रत्नों की वर्षा हुई । कोइ सत्व दरिद्री या दुःखी न रहा । दश महीने बीतने पर जब बोधिसत्य का जन्म- समय उपस्थित छुया तब राजा शुद्धोदन के गृह और उद्यान में बत्तीस पूर्वनिमित्त प्रादुर्भूत हुए । मायादेवी पति का श्राज्ञा ले-लुम्बिनी-बन गई । यहाँ बोधिसत्व का जन्म हुआ। उसी समय पृथ्वी को भदकर महापन का प्रादुर्भाव हुअा। नन्द, उपनन्द, नागराजाओं ने बोधिसत्व को शीत और उष्ण बलकी वारिधारा से स्नान कराया । अन्तरिक्ष में दो चामर और रत्नछत्र प्रादुर्भूत हुए । बोधिसत्व ने महापद्म पर बैठकर चारों दिशाओं को देखा । बोधिसत्व ने दिव्य- चक्षु से समस्त लोक-धातु को देखा और जाना कि प्रज्ञा, शील, समाधि या कुशलमूल-चर्या में मेरे तुल्य कोई सत्व नहीं है। विगत-भय हो, सर्वसत्वों का चित्त और चरित जानकर बोधिसत्व ने