पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

की अत्यन्त अपेक्षा थी। प्राचार्य जी ने यह ग्रन्थ लिखकर इस प्रभाव की उचित पूर्ति की यह सर्वत्र प्रसिद्ध है कि प्राचीन भारतीय परिखतगण अपना मत स्थापित करने के लिए परमत की पूर्वपक्ष के रूप में बालोचना करते थे। विरुद्ध मतों में प्राचीन काल में, अर्थात् खीष्ट द्वितीय शतक से द्वादश शतक तक, बौद्धमत का ही मुख्य स्थान रहा, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। न्याय, वैशेषिक, पातञ्जलयोग, पूर्वमीमांसा तथा वेदान्त- प्रस्थान की समकालीन दार्शनिक विचारधाराओं की आलोचना करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है। वसुबन्धु, दिङ्नाग, धर्मकीर्ति श्रादि सुप्रसिद्ध श्राचार्यों का नाम कौन नहीं बानता १ सौगत दर्शन के चार मुख्य प्रस्थानों का परिचय किसे नहीं है। यह बात सत्य है, किन्तु साथ ही यह भी सत्य है कि बौद्धदर्शन एवं धर्म का परिचय प्रायः लोगों को नहीं है। पूर्व काल में भी इसका शान सब लोगों को नहीं था। साधारण जनता की बात दूर रही, बड़े-बड़े पंडित भी इससे वंचित थे। इसलिए प्राचीन समय में भी कोई कोई प्राचार्य बौद्धमत के पूर्वपक्ष के स्थापन के प्रसङ्ग में निरसनीय मत से सम्यक् अभिजन थे। अवश्य उदयनाचार्य या वाचस्पतिमिश्रादि इसके अपवाद है । इस दृष्टि से वर्तमान समय की स्थिति और भी शोचनीय है। इसका प्रधान कारण बौद्धों के प्रामाणिक प्रन्यों का अभाव है। दूसरा कारण है ग्रन्थों के उपलब्ध होने पर भी व्यक्तिगत कुसंस्कारों के कारण सहदय पालोचन का अभाव । वर्तमान समय से दुर्लभ ग्रन्थों का अमाव कुछ कम हुआ है । यह सत्य है कि श्राज भी बहुत से अमूल्य ग्रन्थ अप्राप्त हैं, और प्राप्त ग्रन्थों में भी सबका प्रकाशन नहीं हुआ है । परन्तु अब अाधा हो चली है कि अनुसन्धान की क्रमिक वृद्धि के फलस्वरूप बहुत से अशात प्रन्यों का परिचय प्राप्त होगा और अप्राप्त ग्रन्थ प्राप्त होंगे। यह भी प्राशा है कि दार्शनिकों का चिचगत संकोच दूर होगा और रुचि परिवर्तित होगी। इससे प्राचीन एवं अभि- नव ग्रन्थों के तथ्य-निर्णय की ओर दृष्टि प्राकर्षित होगी। इससे बौद्ध-धर्म और दर्शन संबन्धी मिथ्याज्ञान अनेक अंशों में दूर होगा। प्राचार्य जी का प्रस्तुत ग्रन्थ इस कार्य में विशेष रूप से सहायक होगा, इसमें सन्देह नहीं है। ( २ ) श्राचार्य जी ने ग्रन्थ का नाम 'बौद्ध-धर्म और दर्शन' रखा है । वस्तुतः धर्म और दर्शन सबन्धी प्रचुर सामग्री इसमें संचित है। वर्तमान युग की विभिन्न भाषाओं में इस संबन्ध में जो विचार प्रकाशित हुए हैं, उनका सार-संकलन देने के लिए ग्रन्थकार ने प्रयत्न किया है। बौद-धर्म का उद्भव, उसका भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों में तथा मारत से बाहर के देशों में प्रसार एक ऐतिहासिक ब्यापार है। एक ही मूल उपदेश श्रोताओं और विचारकों के प्राशय- भेद से नाना रूप में विभिन्न निकायों में विकसित हुआ है । यह ऐतिहासिक घटना है, इसलिए धर्म तथा दर्शन की क्रमशः विकसित धाराएँ इसमें प्रदर्शित है। जो लोग भारतीय साधना.