पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बोल-बम-दर्शन समभाव रखना), तथा उपेक्षा (सुख और दुःख में समान रूप रहना )। सुमेध ने बुद्ध गुणों का ग्रहण कर दीपंकर को नमस्कार किया। सुमेव की चर्या अर्थात् साधना प्रारंभ हुई और ५५० विविध जन्मों के पश्चात् वह तुपित-लोक में उत्पन्न हुए; और वहां बोधि प्राप्ति के सहस्स वर्ष पूर्व बुद्ध-हलाहल शब्द इस अभिप्राय से हुआ कि सुमेध की सफलता निश्चित है । तुक्ति- लोक से च्युत होकर माया देवी के गर्भ में उनकी अवक्रान्ति हुई, और मनुष्यभाव धारण कर उन्होंने सम्यक्-सम्बोधि प्राप्त की। सुमेध-कथा से स्पष्ट है कि सुमेध ने सम्यक् संबोधि के आगे अर्हत् के आदर्श निर्वाथ को तुच्छ समझा और बुद्धत्व की प्राप्ति के लिये दश पारमिताओं का ग्रहण किया। शाक्य मुनि ने ५५० विविध जन्म लेकर पारमितानों द्वारा सम्यक् सम्बुद्ध की लोकोत्तर-संपत्ति प्राप्त की। शाक्यमुनि का पुण्य-संभार और ज्ञान अर्हत् के पुण्य-संभार और ज्ञान से कहीं बढ़कर है | बुद्ध अन्य अर्हतों से भिन्न है, क्योंकि उन्होंने निर्वाण-मार्ग का आविष्कार किया है। अर्हत् ने बुद्ध के मुख से दुःख-निरोध का उपाय श्रवण किया, और उनके बताये हुए. मार्ग का अनुसरण कर अर्हत् अवस्था प्राप्त की। बुद्ध का गान अनंत है और उनकी चर्या, साधना परार्थ है। महायान-धर्म सर्वभूतदया पर अाश्रित है । 'श्रार्यगयाशीर्ष में कहा है- किमारंभा मजुश्री बोधिसत्वानां चर्या । किमधिष्ठाना। मंजुश्रीराह महाकरुणारंभा देवपुत्र बोधिसत्वानां चर्या सत्वाधिष्ठानेति बिस्तरः । (बोधिचर्यावतार पंजिका पृ० ४८७)! अर्थात् हे मंजुश्री, बोधिसत्वों की चर्या का आरंभ क्या है, और उसका अधिष्ठान अर्थात् नालंबन क्या है । मंजुश्री बोले-हे देवपुत्र । बोधिसत्वों की चर्या महाकरुणा पुरःसर होती है, अत: महाकरुणा ही उसका प्रारंभ है। इस करुणा के जीव ही पात्र हैं। दुखित जीवों का आलंबन करके ही करुणा की प्रवृत्ति होती है। अार्यधर्मसंगीति में कहा है- न भगवन् बोधिसत्वेनातिबहुषु धर्मेषु शिक्षितव्यम् । एक एव हि धर्मो बोधिसत्वेन स्वाराधितकर्तव्यः सुप्रतिविद्धः । तस्य करतलगताः सर्वे बुद्धधर्मा भवति । भगवन् ! येन बोधिसत्वस्य महाकरुणा गच्छति तेन सर्वबुद्धधर्माः गच्छन्ति । तया भगवन् जीवितेन्द्रिये सति शेषाणाम् इन्द्रियाणाम् प्रवृत्तिर्भवति एवमेव भगवन् महाकणार्या सत्याम् बोधिकारकाणाम् धर्माणाम् प्रवृत्तिर्भवति । (बोधि• पृ. ४८६-४८७) बोधिसत्व के लिये बहुधर्म की शिक्षा का ग्रहण अनावश्यक है। बोधिसत्व को एक ही धर्म स्वायत्त करना चाहिये । उसके हस्तगत होने से सत्र बुद्ध-धर्म हस्तगत होते हैं। जिस ओर महाकरुणा की प्रवृत्ति होती है, उसी ओर सब बुद्ध-धर्मों की प्रवृत्ति होती है; जिस प्रकार जीवितेन्द्रिय के रहते अन्य इन्द्रियों की प्रवृत्ति होती है, उसी प्रकार महाकरुणा के रहने से बोधिकारक अथवा बोधिपाक्षिक धर्मों की प्रवृत्ति होती है । अर्थात् हे भगवन् ,