पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बौर-धर्म-पराम को दबा देता है, उसी प्रकार पाप प्रतिपक्षी से अभिभूत होकर फल देने में असमर्थ हो जाता है। बोधिचित्त ही सब पापों के निर्मूल करने का महान् उपाय है। यह सतत फल देने वाला कल्पवृक्ष है, सकल दारिद्रय को दूर करने वाला चिंतामणि है, और सब का अभिप्राय परिपूर्ण करने वाला भद्रघट है। प्रार्यगंडव्यूह-सूत्र में भगवान् अजित ने स्वयं कहा है कि सब बुद्ध-धर्मों का बीज बोधिचित्त है ।(बोधिचित्तं हि कुलपुत्र बीजभूतं सर्वबुद्धधर्माणाम् )। अतः महायानधर्म की शिक्षा की मूल भित्ति बोधिचित्त ही है । बोधिचित्तोत्पाद के बिना कोई व्यक्ति, जो महायान का अनुगामी होना चाहता है, बोधिसत्व की चर्या अर्थात् शिक्षा ग्रहण करने का अधिकारी नहीं होता। बोधिचित्तग्रहण- पूर्वक ही रोधिसत्व-शिक्षा का समादान होता है, अन्यथा नहीं। वह बोधिचित्त दो प्रकार का है-~~-बोधिप्रणिधि-चित्त और बोधिप्रस्थान-चित्त । प्रणिधि का अर्थ है--ध्यान अथवा कर्मफल का परित्याग । शिक्षासमुच्चय (पृ.८ ) में कहा है-मया बुद्धेन भवितव्यमिति चित्तं प्रणिधानादुत्पन्नं भवति । अर्थात्-मैं सर्व जगत् के परित्राण के लिये युद्ध होऊँ-ऐसी भावना प्रार्थना रूप में जब उदित होती है, तब बोधिप्रणिधि-चित्त का उत्पाद होता है । यह पूर्वावस्था है। महायान का पथिक होने की इच्छा मात्र प्रकट हुई है। अभी उस मार्ग पर पथिक ने प्रस्थान नहीं किया है। पर जब व्रत का ग्रहण कर वह मार्ग पर प्रस्थान करता है, और कार्य में व्याप्त होता है, तब बोधिप्रस्थान-नित्त का उत्पाद होता है। प्रस्थान-चित्त निरंतर पुण्य का देने वाला है। इसीलिये शूरंगमसूत्र में कहा है कि ऐसे प्राणी इस जीवलोक में अत्यन्त दुर्लभ है, जो सम्बोधि-प्राप्ति के लिये प्रस्थान कर चुके हैं। वह जगत् के दुःख की अोपधि और जगदानन्द का बीज है । वह सब दुःखित जनों के समस्त दुःखों का अपनयन कर सबको सर्वसुख-सम्पन्न करने का उद्योग करता है । वह सब का अकारण बन्धु है । उसका व्यापार अहेतुक है। उसकी महिमा अपार है, जो उसका निरादर करता है, वह सम्म बुद्धों का निरादर करता है और जो उसका सत्कार करता है, उसने सब बुद्धी का सत्कार किया। सतविध अनुत्त-पूजा-बोधिचित्त का उत्पाद करने के लिए, सप्तविध अनुत्तर- पूजा का विधान है । धर्म-संग्रह के अनुसार इस लोकोत्तर पूजा के सात अंग इस प्रकार हैं:-वंदना, पूजना, पापदेशना, पुण्यानुमोदन, अध्येपणा, बोधिचित्तोत्पाद और परिणामना । बोधिचर्यावतार के टीकाकार प्रज्ञाकरमति के अनुसार इस पूजा के बाठ अंग है-वन्दन, पूजना, शरणगमन, पापदेशना, पुण्यानुमोदन, बुद्धाभ्येषण, याचना और बोधिपरिणामना । बोधिचित्त-ग्रहण के लिए सबसे पहले बुद, सद्धर्म तथा बोधिसत्यगण की पूजा प्रार- श्यक है । यह पूना मनोमय पूचा है । शान्तिदेव मनोमय पूना के हेतु देते हैं-