पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( * ) चलना पड़ता है। इस प्रकार क्रमशः शुद्ध वासना निवृत्त हो जाती है । बोधिसत्र की अन्तिम अवस्था में बुद्धत्व का विकास होता है, जैमे शुद्ध श्रध्या में संचरण करने हुए. जीव को क्रमशः शिवत्व की अभिव्यक्ति होती है । परन्तु जब तक चिद्रूपा शक्ति की अभिव्यक्ति नहीं होती तब तक शिवत्व का आभास होने पर भी शिवत्व की सम्यक् अभिव्यक्ति नहीं होती । यहाँ तक कि विशुद्ध-विज्ञान-कैवल्य रूप स्थिति में अवस्थित होने पर भी पूर्ण शिवस्त्र का लाभ नहीं होता। टीक इसी प्रकार बोधिसत्व की अवस्था दस या ततोधिक भमियों में विभक है । 'भूमिप्रविष्ट प्रज्ञा' का विकास होते होते अक्लिष्ट अज्ञान की निवृत्ति हो जाती है और अन्तिम अवस्था में पूर्णाभिषेक की प्राप्ति होती है। उस समय बोधिसत्य बुद्ध पद पर अधिरूढ़ होते हैं । बुद्धत्व अद्वय स्थिति का वाचक है । पुद्गल-नैराम्य सिद्ध होने पर समझना चाहिये कि क्लेश-निवृत्ति हो गयी है, किन्तु द्वैत का भान नहीं छूटता । इसके लिए धर्म-नैरात्म्य का होना आवश्यक भी है। शुद्ध बासना के निवृत्त होने पर धर्म-नैरात्म्य की भी सिद्धि हो जाती है। उस समय नैरात्म्य-दृष्टि से ज्ञाता और ज्ञेय समरस हो जाते हैं । यही पूर्ण नैरात्म्य है । वैदिक तथा श्राग- मिक श्रादर्श में बाह्य दृष्टि से किंचित् भेद प्रतीत होता है । यह वैसा ही भेद है जैमा कि श्रोहटमेन्ट और न्यू टेस्टामेन्ट में लॉ ( विधि ) तथा लव (प्रेम ) इन लक्ष्यों के आधार पर किंचित् भेद प्रतीत होता है। बुद्धत्व का श्रादर्श प्राचीन समय में भी था। जनता के लिए. बुद्ध होना अाराततः शक्य नहीं था, परन्तु अर्हत्-पद में उस्थित होकर निर्वाण-लाभ करना-अर्थात् दुःख का उपशम करना, सभी को इष्ट था। किन्तु जिस स्थिति में अपना और दूसरे का दुःख समान प्रतीत होता है और अपनी सत्ता का बोध विश्वव्यापी हो जाता है, अर्थात् जब समस्त विश्व में अपनत्व श्रा जाता है, उस समय सबको दुःख-निवृत्ति हो अपने दुःख की निवृत्ति में परिणत हो जाती है। क्लिष्ट वासना के उपशम से जो निर्वाण प्रास होता है वह यथार्थ नहीं है । महानिर्वाण की प्राप्ति के पहले साधक को बोधिसत्र अवस्था में श्रारूड़ होकर क्रमशः उच्चतर भूमियों का अतिक्रम करना पड़ता है ! क्रम-विकास के इस मार्ग में किसी किसी का शत-शत जन्म बीत जाता है। सांख्ययोग के मार्ग में जैसे विवेकण्याति से विवेकज-शान का भेद दृष्टिगत होता है, ठीक उसी प्रकार श्रुत-चिन्ता-भावनामयी प्रज्ञा से भूमिप्रविष्ट प्रज्ञा का भी भेद है । विवेकख्याति कैवल्य का हेतु है, परन्तु विवेकज-ज्ञान कैवल्य के अविरोधी ईश्वरत्व का साधक है । ईश्वरत्व की भूमि तक साधारण लोग उठ नहीं सकते, किन्तु विवेक-ज्ञान प्राप्त करने पर कैवल्य-प्राप्ति का अधिकार सबको मिल सकता है । विवेकज-शान तारक, अक्रम, सर्वविषयक, सर्वथा विषयक तथा अनौपदेशिक है । अर्थात् यह प्रातिम शान है या स्वयंसिद्ध महाज्ञान है । यह सर्वज्ञत्व है, किन्तु कैवल्य स्थिति नहीं है । योगभाष्य में लिखा है कि सत्व और पुरुष के समरूप से हो जाने पर कैवल्य-लाभ होता है, परन्तु विवेक-ज्ञान की प्राप्ति या ईश्वरत्व लाभ हो या न हो इससे उसका कोई संबन्ध नहीं है । भेनमत में भी केवल-जान सभी को प्राप्त हो सकता है, किन्तु