पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२९५

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२०० गिरते हैं। शुभ और अशुभ कर्मों का यह मधुर और कटु फल-विपाक होता है। इसलिए, शुभ- कर्मों की अभिलाषा होनी चाहिये । उपस्थित सामग्री का निरूपण कर बलावल का विचार करना चाहिये। फिर कार्य का प्रारंभ करे अथवा न करे। श्रारंभ न करने इतना दोष नहीं है जितना कि आरंभ करके निवर्तन करने में है। प्रतिज्ञात कर्म के न करने से पाप होता है और उससे दुःख की वृद्धि होती है। इस प्रकार प्रारब्ध कर्म का ही संपादन न होता हो, ऐसा नहीं है, पर उस काल में जो अन्य कार्य हो सकते थे, वह भी नहीं होते। कर्म, उपल्लेश और शक्ति में 'मान' होता है । 'मुझ अकेले के ही करने का यह काम है। यह भाव 'कर्म-मानिता' कहलाता है। सब सत्व वेशाधीन है; स्वार्थ साधन में समर्थ नहीं है, ये अशक्त हैं और मैं भारोहन में समर्थ हूँ। इसलिए मुझको सब का सुख संपादन करने के लिए बोधिचित्त का उत्पाद करना चाहिये । मुझ दास के रहते और लोग क्यों नीच कर्म करे ? जो काम मेरे करने का है, उसे और क्यों करे ? यदि मैं इस मान से कि यह मेरे लिये अयुक्त है, उसे न करूँ, तो इससे तो यही अच्छा है कि मेरा मान ही नष्ट हो जाय । यदि मेरा चित्त दुर्बल है,तो थोड़ी भी आपत्ति बाधक होगी । मृत सर्प को पाकर काक भी गरुड़ हो जाता है । जो विषादयुक्त है, उसके लिए आपत्ति सुलभ है, पर दो उत्साहसंपन्न है और स्मृति-संप्रलय द्वारा उपल्लेशों को अवकाश नहीं देता, उसको बड़े से बड़ा भी नहीं जीत सकता। इसलिए बोधिसत्व दृढ़चित्त हो श्रापत्ति का अन्त करता है । यदि बोधिमत्व संशों के वशीभूत हो जाय, तो उसका उपहास हो। क्योंकि वह अलोक्य के विजय की इच्छा रस्वता है। वह विचार करता है कि मैं सबको जीतू और मुझको कोई नहीं जीते । उसको इस बात का मान है कि मैं शाक्यसिह का पुत्र हूँ। जो मान से अभिभूत हो रहे हैं, वे मानी नहीं हैं; क्योंकि मानी शत्रु के वश में नहीं पाता और यह मानरूपी शत्रु के में है। मान से वे दुर्गति को प्राप्त होते हैं। मनुष्य भाव में भी उनको सुख नहीं मिलता । वे दास, परभृत, मूर्ख और अशक्त होते हैं । यदि उनकी गणना मानियों में हो तो बतायो दोन किन्हें कहेंगे ? वही सच्चा मानी, विजयी और शूर है जो मानशत्रु की विजय करने के लिए मान धारण करता है और जो उसका नाश कर लोक में बुद्धत्व को प्राप्त होता है । संझेशों के बीच में रहकर सहसगुण अग्रसर होना चाहिये । जो काम भागे श्रावे, उसका व्यसनी हो जाय । द्यूतादि क्रीडा में श्रासक पुरुष उसके सुख को पाने की बार-बार इच्छा करता है। इसी प्रकार बोधिसत्व को काम से तृप्ति नहीं होती। वह बार-बार उसकी अभिलाषा करता है सुख के लिए ही कर्म किया जाता है, अन्यथा कर्म में प्रवृत्ति न हो। पर कर्म ही जिसको मुख स्वरूप है, जिसको कर्म के अतिरिक्त किसी दूसरे सुख की अभिलाषा नहीं है, वह निष्कर्म होकर कैसे सुखी रह सकता है ! बोधिसत्व को चाहिये कि एक काम के समास होने पर दूसरे काम में लग जाय । पर अपनी शक्ति का क्षय जानकर काम को उस समय छोड़ देना चाहिये । यदि कार्य अच्छी तरह समाप्त हो जाय तो उत्तरोत्तर कार्य के लिए अभिलाषी होना चाहिये। शो के प्रहार से अपनी रक्षा करनी चाहिये और जिस प्रकार शस्त्र-विद्या में कुशल शत्रु के साथ खन-युद्ध वश