पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/२९८

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पौव-पम-राम कब श्मशान-भूमि में जाकर दुर्गन्ध युक्त निजदेह की तुलना पूर्वमृत जीवों के अस्थि- पंजर से करूँगा १ शृगाल भी अतिदुर्गन्ध के कारण समीप नहीं श्रावेंगे। इस शरीर के साथ उत्पन्न होनेवाले अस्थिखंड भी पृथक् हो नायँगे, फिर प्रियजनों का क्या कहना ? यदि यह सोचा जाय कि पुत्र-कलत्रादि सुख-दुःख में मेरे सहायक होते हैं, इसलिए इनका अनुनय करना युक्त हैतो ऐसा नहीं है। कोई किसी का दुःख बाँट नहीं लेता। जीव अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही मरता है। सब लोग अपने अपने कर्म का फल भोगते है। इसलिए यह केवल अभिमान है कि पुत्र-कलत्रादि सुख-दुःख में सहायक होते हैं। वह केवल विन्न ही करते हैं। अत: उन प्रियजनों से कोई लाभ नहीं है। परमार्थ-दृष्टि से देखा जाय तो कौन किसकी संगति करता है । जिस प्रकार राह चलते पथिकों का एक स्थान में मिलन होता है और फिर वियोग होता है, उसी प्रकार संसाररूपी मार्ग पर चलते हुए शाति, सगोत्र आदि संबन्धों द्वारा श्रावास-परिग्रह होता है | मरने पर वह उनके साथ नहीं जाते। पूर्व इसके कि लोग मरणावस्था में उसका परित्याग करें और उसके लिए विलाप करें, मनुष्य वन का श्राश्रय लेना चाहिये । न किसी से परिचय और न किसी से विरोध रखे। स्वजन बान्धवों के लिए प्रवज्या के अनन्तर वह मृत के समान है । वन में जाति, सगोत्रादि कोई उसके समीपवर्ती नहीं हैं, जो अपने शोक से व्यथा पहुँचाने या विशेष करें। इसलिए एकान्तबास-प्रिय होना चाहिये। एकान्तवास में प्रायास या रश नहीं है । वह कल्याण-दायक है और सब प्रकार के विक्षेपों का शमन करता है। इस प्रकार जन-संपर्क के विवर्जन से काय-विवेक का लाभ होता है। तदनन्तर चित्त-विवेक की आवश्यकता है । चित्त के समाधान के लिए प्रयत्न-शील होना चाहिये। चित्त-समाधान का विपक्षी काम-वितर्क है । इसका निवारण करना चाहिये । रूपादि विषयों के सेवन से लोक और परलोक दोनों में अनर्थ होता है । जिसके लिए तुमने पाप और अपयश को भी न गिना, और अपने को भय में डाला, वह अब अस्थिमात्र है, और किसी के अधिकार में नहीं है । जो मुख कुछ काल पहले लजा से अवनत था और सदा अवगुण्ठन से आवृत्त रहता था, उसे आज गृध्र व्यक्त करते हैं, जो मुख दूसरों के दृष्टिपात से सुरक्षित था, उसे श्राज गृध्र खाते हैं । अब क्यों नहीं उसकी रक्षा करते ? राधों और शृगालों से विदारित इस मांस-पुंज को देखकर अब क्यों भागते हो? काष्ठ-लोष्ट के समान निश्चल इस अस्थि-पंजर को देखकर अब क्यों त्रास होता है ? पुरीप और श्लेष्म दोनों एक ही श्राहार-पान से उत्पन्न होते हैं। इनमें पुरीप को तुम अपवित्र मानते हो, पर कामिनी के अधर का मधुपान करने के लिए उसके श्लेग्म-पान में क्यों रति होती है जो काम-सुख के अभिलापी है, उनकी विशेष रति अपवित्र स्त्री कलेवर में ही होती है। यदि तुम्हारी प्रासक्ति अशुचि में नहीं है तो क्यों इस स्नायु-बद्ध अस्थि-पंजर और मांस के लोथड़े को आलिंगन करते हो १ अपने ही इस अमेध्य शरीर पर संतोष करो। यह काय स्वभाव से ही विकृत है । यह अभिरति का युक्त स्थान नहीं है। जब शरीर का चर्म उत्पाटित होता है, तब त्रास उत्पन होता है। यह शरीर का स्वभाव है। पर ऐसा बानकर भी इसमें रति क्यों उत्पन्न होती है ? यदि यह कहो कि यद्यपि शरीर स्वभाव से अमेध्य है, पर चन्दनादि सुरभि वस्तुओं