पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३२०

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२३२ चौर-धर्म-दर्शन इसका कारण एक दूसरे मत के अनुसार प्रात्मवाद अात्महष्टि और अस्मिमान है। क्योंकि इन दो के कारण श्रात्मा का वाद होता है । यदि पागम वाद शब्द का प्रयोग करता है, यह है कि आत्मा असत् है। काय-दृष्टि का उपादान उनके प्रति छन्द और राग है, उपादान-प्रत्यय-वश उपचित-कर्म पुनर्भव का उत्पाद करता है, यह मव है। सूत्र वचन है- हे आनन्द ! पौन विक-कर्म भव का स्वभाव है। भव-प्रत्यय-वश विज्ञानावक्रान्ति के योग से अनागत जन्म जाति है। यह पंचस्कन्धिका है, क्योंकि यह नाम-रूप-स्वभाव है। जाति-प्रत्ययवश जरा-मरण होता है । इस प्रकार केवल अर्थात् श्रात्मरहित इस महान् दुःख-खन्ध का समुदय होता है। यह महान है, क्योंकि इसका श्रादि अन्त नहीं है । बारह अंग पंच-स्वन्धिक बारह अवस्थाएँ हैं। यह वैभाषिकों का न्याय है। भविधा विद्या का अभाव नहीं है, यह विद्या का विपक्ष है, यह धर्मान्तर है; यथा-- अमित्र मित्र का प्रभाव नहीं है, किन्तु मित्र का विपक्ष है। 'न' उपसर्ग कुत्सित के अर्थ में होता है । यथा बुरे पुत्र को अपुत्र कहते हैं । क्या यह नहीं कह सकते कि अविद्या कुत्सित विद्या अर्थात् कुत्सित प्रशा है १ नहीं; अविद्या कुप्रज्ञा नहीं है, क्योंकि कुप्रजा या शिष्ट-प्रशा निस्सन्देह दृष्टि है । किन्तु अविद्या निश्चय ही दृष्टि नहीं है । वैभाषिक सौत्रान्तिक के इस मत को नहीं मानते कि अविद्या एक पृथक धर्म नहीं है किन्तु शिष्ट-प्रज्ञा है और इस तरह प्रज्ञा का एक प्रकार है। वैभाषिक कहते हैं कि विद्या प्रशा-स्वभाव नहीं है । वह भदन्त श्रीलाम के इस मत का भी प्रतिषेध करते हैं कि अविद्या सर्व-श-स्वभाव है । वह कहते हैं कि यदि अविद्या सर्व-कश-स्वभाव है तो संयोजनादि में इसका पृथक् वचन नहीं हो सकता । वैभाषिक के अनुसार अविद्या का लक्षण चतु:सत्य, त्रिरत्न, कर्म और फल का असंप्रख्यान (अज्ञान ) है । श्राप पूढेंगे कि असंप्रख्यान का खमात्र क्या है ? प्रायः निर्देश स्वभाव-प्रभावित नहीं होते किन्तु कर्म-प्रभावित होते हैं। यथा चक्षु का निर्देश इस प्रकार करते हैं-"जो रूपप्रसाद चतुर्विज्ञान का श्राश्रय है। क्योंकि इस अप्रत्यक्ष रूप को केवल अनुमान से जानते हैं। इसी प्रकार अविद्या का स्वभाव उसके कर्म या कारित्र से जाना जाता है। यह कर्म विद्या का विपद-स्वरूप है । अतः यह विद्या-विपक्ष संयुक्त में हैं:--पूर्वान्त के विषय में अज्ञान, अपरान्त के विषय में अशान, मध्यान्त के विषय में प्रशान... "त्रिस्न के विषय में....."दुःख-समुदय और निरोध-मार्ग के विषय में... कुशल-अकुशल-अव्याकृत के विषय में, आध्यात्मिक ...."बाह्य के विषय में अशन, यदि- चित् उस उस विषय में अशन है, वह तम श्रावरण है। 1. विशुद्धि पृ० १७१-सूत्र के अनुसार दुःखादि चार स्थान में अज्ञान प्रविधा है। अभिधर्म के अनुसार दुःसादि चतुःसत्य, पूर्वान्त, अपरान्त, पून्तिापरान्त और वं. प्रत्ययता तया प्रतील समुपा धर्मों के विषय में प्रधान प्रविद्या है (धम्मसंगदि।१५]