पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३२१

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द्वादश अध्याय २३५ नाम-रूप में रूप रूप-स्कन्ध है और नाम अरूपी स्कन्ध है । वेदना, संश, संस्कार, और विज्ञान यह चार अरूपी स्कन्ध 'नामा कहलाते हैं। क्योंकि नाम का अर्थ है 'बो मुकता है। (नमतीति नाम)। अरूपी स्कन्ध नामवश, इन्द्रियवश और अर्थवश, अर्थों में नमते है; अर्थात् प्रवृत्त होते हैं, उत्पन्न होते हैं । 'नामवश इस पद में नाम शब्द का ग्रहण उस अर्थ में है, जो लोक में प्रसिद्ध है । इसका अर्थ.यहाँ संशा-करण है। यह समुदाय-प्रत्यायक है; यथा-- गो-अश्वादि । अथवा एकार्थ-प्रत्यायक है यथा-रूपादि। स्पर्श--ब है, त्रिक-संनिपात से स्पर्श उत्पन्न होता है । पहला चतुः-संस्पर्श है, छठा मनः संस्पर्श है । इन्द्रिय, विषय और विज्ञान इन तीनों के सैनिपात से यह उत्पन्न होते हैं। सौत्रान्तिक के अनुसार स्पर्श त्रिक-संनिपात है; किन्तु सर्वास्तिवादी और बुद्धघोष के अनुसार खोकोत्तर सत्य-य को वर्जित कर शेष स्थानों में श्रालम्बनवश भी अविद्या उत्पन होती है। अविद्या के उत्पाद से दुःख-सत्य प्रविवादित होता है। पुद्गल उसके लक्षणों का प्रतिषेध नहीं कर सकता। पूर्वान्त अतीन स्कन्ध-पंचक है। अपरान्त अनागत स्कन्ध-पंचक है। पूर्वान्तापरान्त उभय है। अविद्यावश यह प्रतिबंध नहीं हो सकता कि यह अविधा है, यह तस्कार है। निशुदि० (पृ० ४०७) में प्रतीत्यसमुत्पाद की सूची में शोकादि अन्त में उक्त है। भव-चक के आदि में उक्त अविद्या इनसे सिद्ध होती है। जो पुद्गल अविया से विमुक्त नहीं है उसको शोक दौमनस्यादि होते है। जो मूढ़ हैं उनको परिदेवना होती है। अतः जब शोकादि सिद्ध होते हैं, तब अविद्या सिद्ध होती है । पुनः यह भी कहा है कि मानवों से अविद्या होती है। [म. 10] शोकादि भी प्रास्त्रों से उत्पन्न होते हैं। कैसे ? काम-वस्तु से वियोग होने पर कामासत्र से शोक उत्पन्न होता है। पुनः यह सकल शोकादि दृष्टि से उत्पन्न होते हैं। यथा उक्त है कि :-जब उसको यह संज्ञा होती है कि मैं रूप हूं, मेरा रूप है, सब रूप का अन्यथाभाव होने पर शोकादि उत्पन होते हैं [सं०], यथा दृष्टपास्रव से, उसी प्रकार भवानव से । यथा पांच पूर्व निमित्त देखकर मृत्यु-भय से देव संत्रस्त होते हैं। इसी प्रकार भविद्यालय से शोकादि होते हैं । यथा सूत्र में उक्त है :-हे भिक्षुभो ! मूढ़ इस जन्म में त्रिविध दुःख-दौमनस्य का प्रतिसंवेदन करता है [म. १६३] | इस प्रकार प्रास्रवों में यह धर्म उत्पम होते हैं। इनके सिद्ध होने पर अविद्या के हेतुभूत मानव सिद्ध होते हैं। जब पानव सिब होते है, तब अविद्या सिद्ध होती है, जब अविद्या सिद्ध होती है तब हेतु-फल-परंपरा का पर्यवसान नहीं होता। अतः भव-चक्र का प्रादि अविदित है। हेतु-फल-संबन्धवरा यह चक्र सतत प्रवर्तित होता है विदि० (पृ० १९३) में पालम्बन के अमिमुख नमने से वेदनादि तीन स्कन्ध 'नाम' कहलाते हैं। अमिधर्मकोय के अनुसार विज्ञान भी 'नाम' है।