पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३२८

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चौर-पर्म दर्शन भी नहीं बन सकेगा ओ पूर्वापर काल के गानों का प्रतिसंधान करे। इसलिए सत्य का अर्थ- क्रिया लक्षणत्व भी सिद्ध नहीं हो सकता | पूर्वपक्षी प्रकारान्तर से भी अर्थ-क्रियाकारित्व-लक्षण सत्व को असिद्ध बनाता है । वह पूछता है। बीबादि में कार्योत्पादन सामयं का निश्चय स्वयं बीजादि के ज्ञान से होता है या उसके कार्य अंकुरादि से ! आपके मत में कार्य से ही सामर्थ्य का निश्चय होगा, परन्तु कार्यत्व-सिद्धि वस्तुत्व- सिद्धि पर निर्भर है और वस्तुत्व कार्यान्तर पर | फिर कार्यान्तर के कार्यत्व की सिद्धि के लिए भी वस्तुत्व अपेक्षित है, उसके लिए फिर कार्यान्तर की अपेक्षा होगी। इस प्रकार अनवस्था दोष होगा। इस अनवस्था से बचने के लिए आपको अन्त में वस्तुत्व के लिये कार्यान्तर की अपेक्षा छोड़नी होगी । ऐसी अवस्था में हम कहेंगे कि इसी न्याय से पूर्व पूर्व वस्तुत्व की सिद्धि के लिए कार्यान्तर की अपेक्षा छूटती जायगी और उस उस का असत्व सिद्ध होता जायगा, फिर पक का भी अर्थ-क्रियाकारित्व सिद्ध नहीं हो सकेगा। सिदान्ती कहता है कि वस्तु के क्षणिकल को स्वीकार करने पर ही सामर्थ्य-प्रतीति बनती है; इसलिए, सत्व के साथ क्षणिकत्व की व्याप्ति भी बन जायगी । कार्यवाही शान में अवश्य ही कारणानोपादेयता संस्कार-गर्भित होकर रहती है। इसलिये कार्य-सत्व से कारण- सत्व की अन्वय-व्याप्ति बनती है। ऐसे ही अभाव स्थल में कार्यापेक्षया भूतल कैवल्यग्राही जान में कारणापेक्षया भूतल कैवल्यग्राही ज्ञान की उपादेयता संस्कार-गर्मित होकर रहती है। इसलिए कार्याभाव से कारणाभाव की व्यतिरेक-व्याप्ति बनती है । इस प्रकार एक के निश्चय के समनन्तर ही उत्पन्न अन्य विज्ञान का अन्वय-निश्चय और एक के विरह-निश्चयानुभव के अनन्तर उत्पन्न अन्य विरह-बुद्धि का व्यतिरेक-निश्चय अनायास सिद्ध होता है । सिद्धान्त में अर्थ-क्रिया-कारित्व रूप सामर्थ्य ही सत्व है। उसकी सिद्धि के लिए हमारा यह प्रयास नहीं है । क्योंकि प्रमाण-प्रतीत बीजादि धर्मों में सामर्थ्य प्रमाण-प्रतीत है। हमें तो उसमें केवल क्षण-भंगता सिद्ध करनी है। जब तक अंकुरादि-गत कार्यत्व दृष्टिगत नहीं है तब तक सामर्थ्य के विषय में सन्देह रहेगा। फिर भी उसकी सन्मात्रता अनिश्चित नहीं रहेगी। अन्यथा कहीं भी वस्तुत्व का निश्चय नहीं हो सकेगा। इसलिए सत्व के शास्त्रीय लक्षण सन्दिग्ध रहने पर भी पटु-प्रत्यक्ष से सिद्ध अंकुरादिगत कार्यत्व बीजादि के सामर्थ्य को उपस्था- पित करता है। इसलिए सत्व हेतु की असिद्धि नहीं है । पूर्वपक्षी का यह कहना ठीक नहीं है कि क्षणिकवाद में सामर्थ्य नहीं बन सकती, क्योंकि कारणत्व का लक्षण नियत-प्राग्भावित है। उसका क्षणिकत्व के साथ कौन सा विरोध है ? क्योंकि क्षणमात्रावस्यायी पदार्थ में अर्थ-क्रियाकारित्व लक्षण सामर्थ्य बन जायगा। मेरे पक्ष में अनेक कालवी एक वस्तु के होने से व्याप्ति असंभव नहीं है। क्योंकि सिद्धान्त में अतद्र प-परावृत साध्य-साधन का प्रत्यक्ष- प्रमाण से व्याप्ति-मह संमत है। बौद्ध सिद्धान्त में प्रत्यक्ष प्रमाण के विषय दो होते है-एक प्राय दूसरा अध्ययसेय । प्रकृत में यद्यपि प्रत्यक्ष का विषय ग्राम न हो, क्योंकि सकल अतद्रफ पावस वस्तु का साक्षात् शान संभव नहीं है तथापि एक देश के ग्रहण से साध्य-साधन मात्र का व्याति-निश्चायक विकल्प उत्पन्न होगा। इस प्रकार व्याप्ति का विषय अध्यक्सेय होगा, जैसे