पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( PE ) इस कर्मनन्य मलिन देह का नाश नहीं होता, बल्कि रूपान्तर की प्राप्ति होती है । इससे देह चिन्मय हो जाता है। पहले वह विशुद्ध सत्वमय होता है। उस समय उसकी जरा-मृत्यु से निवृत्ति हो जाती है । उसके बाद साक्षात् चिन्मयत्व का लाभ हो जाता है । श्रागम की परिभाषा में पहले देह का नाम 'बैन्दव' और द्वितीय का 'शाक' है । शाक्त-देह वस्तुतः चित् शक्तिमय देह है। उसमें बिन्दु या महामाया का लेश भी नहीं रहता । इस बैन्दव देह का नाम ही सिद्ध- देह है । बौद्ध, शैव तथा शाक्त सिद्धाचार्य इस बैन्दव या सिद्ध देह को प्राप्त कर अपनी इच्छा के अनुसार विचरण करते हैं। यह प्राकृतिक नियमों की शृङ्खला से बद्ध नहीं है । वे इस देह में अवस्थान करते हुए बीय-सेवा करते हैं | इस देह में मृत्यु का भय नहीं है। इसी लिए मुदीर्घ काल तक इस देह में रह कर जगत् के कल्याण की चेष्टा की जा सकती है। किन्तु अत्यन्त दीर्घ काल के बाद इसकी भी एक सीमा अाती है । यह तो ठीक है कि इस समय भी देह का पात नहीं होता, परन्तु प्रयोजन के सिद्ध हो जाने पर योगी उसे संकुचित करके परमधाम में प्रवेश करता है। कोई कोई इस देह का दिव्य-तनु नाम से भी वर्णन करते हैं। नाथ संप्रदाय, रसेश्वर योगी संप्रदाय तथा महेश्वर संप्रदाय में इस विषय में विस्तृत अालोचना है। सेन्ट जॉन के. पोकलिप्स में भी इस विषय में बहुत कुछ इंगित है। खीष्ट्रीय मत के रिसरेक्शन बॉडी तथा एसेंसन बॉडी का भेद इस प्रसंग में श्रालोच्य है। बौद्ध योगियों के श्राध्यात्मिक जीवन में करुणा का क्या स्थान है, इस विषय की प्रालो. चना के लिए पूर्वोक्त विवरण का उपयोग प्रतात होता है। श्रावक तथा प्रत्येक बुद्धयान में सर्व सत्यों का दुःख-दर्शन ही करुणा का मूल उत्स है। इसका नाम सत्वावलंबन करुणा है । मृदु तथा मध्य कोटि के महायान मत में अर्थात् सौत्रान्तिक तथा योगाचार संप्रदाय में बगत् का नश्वरत्व या क्षणिकत्व ही करुणा का मूल उत्स है। इसका नाम धर्मावलंबन करुणा है। उत्तम महायान अर्थात् माध्यमिक मत में करुणा का मूल कुछ नहीं है, अर्थात् उसकी पृथक् सत्ता नहीं है । इस मत में शून्यता से अभिन्न करणा ही बोधि का अंग है । एक दृष्टि से देखने पर प्रतीत होगा कि शून्यता जैसे लोकोत्तर है, वैसे ही करुणा भी लोकोत्तर है । यह अहेतुक करुणा है। अनंगवन कहते हैं कि करुणावान् कभी किसी सत्व को निराश ( विमुख) नहीं करते- सत्यानामस्ति नास्तीति न चैवं सविकल्पकम् । स्वरूप निष्प्रपंच है, इसलिए प्रज्ञा-रस चिन्तामणि के सदृश अशेष सत्वों का अर्थात् निखिल जीवों का अर्थकरण या अक्रियाकारित्व है । इसी का नामान्तर कृपा है- निरालम्बपदे प्रज्ञा निरालम्बा महाकृपा । एकीभूता धिया सार्ध गगने गगनं यथा । मनोरथनंदि ने प्रमाणवार्तिक की वृत्ति में कहा है- दुःखाद् दुःखहेतोश्च समुद्धरणकामता करुणा ।