पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३३४

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बौद-धर्म-दर्शन स्मरण करता कैसे कर सकता है ? पूर्वानुभूत विषय के सदृश विषय का यह प्रत्यभिज्ञान कैसे कर सकता है ? कैसे एक चित्त देखता है, और दूसरा स्मरण करता है ? यदि आत्मा द्रव्य-सत् नहीं है तो कौन स्मरण करता है, और कौन वस्तुओं का प्रत्यभिशान करता है। प्रथम यही आत्मा अनुभव करता है, पश्चात् यही आत्मा स्मरण करता है । वसुबन्धु उत्तर देते है कि निश्चय ही हम यह नहीं कह सकते कि एक चिच एक विषय को देखता है, और दूसरा चित्त उस विषय का है; क्योंकि यह दोनों चित्त एक ही सन्तान के हैं । हमारा कथन है कि एक अतीत चित्त विषय-विशप को ग्रहण कर एक दूसरे चित्त अर्थात् प्रत्युत्पन्न चित्त का उत्साद करता है, जो इस विषय का स्मरण करता है । दूसरे शब्दों में स्मरण-चित्त,दर्शन-चित्त (अनुभव- चित्त) से उत्पन्न होता है, जैसे 1-फल वीज से सन्तति-विपरिणाम की अन्तिम अवस्था के बल से उत्पन्न होता है। अन्त में स्मरण से ही प्रत्यभिज्ञान होता है। वसुबन्धु पुनःकहते हैं कि कतिपय भानार्य कहते हैं कि भाव को भविता की अपेक्षा है, जैसे-देवदत्त का गमन देवदत्त की अपेक्षा करता है । गमन भाव है,देवदत्त भविता है। इसी प्रकार विज्ञान और यत्किचित् भाव एक अाश्रय की,विज्ञाता की; अपेक्षा करते हैं । वसुबन्धु इसका उत्तर इस प्रकार देते हैं.--वास्तव में देवदत्त का गमन शरीर-सन्तान का देशान्तरों में उत्पादमात्र ही है । कोई सोत्पाद हेतु अर्थात् सन्तान का पूर्व क्षण 'गमन' कहलाता है । जैसे हम कहते हैं कि चाला जाती है, उसी प्रकार देवदन के गमन को कहते हैं कि देवदत्त जाता है कि ज्याला को सन्तान उत्पन्न होकर एक देश से दूमरे देश को जाती है । इसी प्रकार लोक में कहते हैं कि देवदत्त जानता है (विजानाति)। क्योंकि यह समुदाय जिसे देवदत्त कहते हैं, विज्ञान का हेतु है, और लोक-व्यवहार का अनुवर्तन कर स्वयं प्रार्य इस भाषा का प्रयोग करते हैं । प्रदीप का गमन यह है : - अक्षिण की अव्युच्छिन्न सन्तान में, जिसे विपर्य- यवश एक करके ग्रहण करते हैं, प्रदीप का उपचार होता है। जब इन समनन्तर क्षणों में से एक, पूर्व क्षण से अन्यत्र, देशान्तर में उसद्यमान होता है, तो कहा जाता है कि प्रदीप जाता है । किन्तु अर्चि-सन्तान से पृथक् और अन्य कोई गन्ता नहीं है। जब एक चित्त-क्षण विषयान्तर में उत्पद्यमान होता है, तब कहते हैं कि विज्ञान इस विषय को जानता है । यदि हम यह भी मान लें कि एक नित्य अात्मा और नित्य असंचारी मन का संयोग होता है; तथापि श्राप विशिष्ट संयोग का होना, जो विशिष्टचित्त के लिए आवश्यक है; कैसे सिद्ध कर सकते हैं? क्या श्राप यह कहेंगे कि यह विशिष्टता बुद्धि-विशेष के कारण होती है, जो श्रात्मा का गुण है ? किन्तु बुद्धि में भी वही कठिनाई है, जो मन में है । जब श्रात्मा विशिष्ट है, तब बुद्धि कैसे विशिष्ट होगी १ क्या श्रार कहेंगे कि संस्कार-विशेष से श्रात्मा और मन का संयोग-विशेष होता है, और इस विशेष से बुद्धि-विशेष होता है ? इस पक्ष में अात्मा निष्प्रयोजनीय हो जाता है। श्राप यह क्यों नहीं कहते किं संस्कार-विशेषापेक्ष चित्त से ही चित्त-विशेष होता है। चित्तोसाद श्रास्मा का सामर्थ्य नहीं है, और यह कहना कि श्रात्मा से चित्त प्रवृत्त होते हैं, एक कुहक- | इसका अर्थ