पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३३६

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२१८ बोल-बम-पान तो यह सब चित्तों का युगपत् उत्पाद क्यों नहीं करता १ वैशेषिक उत्तर देते हैं। क्योंकि बलिष्ठ संस्कार-विशेष अन्य दुर्बल संस्कार-विशेषों की फलोसत्ति में प्रतिबन्धक है,और यदि बलिष्ठ संस्कार नित्य फल नहीं देता तो इसका कारण वही है, जो आपने चिच से सन्तान में अाहित वासना के विवेचन में दिया है। हमारा मत है कि संस्कार नित्य नहीं हैं, और उनका अन्यथा होता है । वसुबन्धु कहते हैं कि उस अवस्था में अात्मा निरर्थक होगा, संस्कारों के बल-विशेष से चित्त-विशेष उत्पन्न होंगे, क्योंकि आपके संस्कार और हमारी वासना के स्वभाव में कोई अन्तर नहीं है । वैशेषिक कहता है कि स्मृति-संस्कारादि गुण पदार्थ हैं, इन गुण पदार्थों का आश्रय कोई न कोई द्रव्य होना चाहिये, और पृथिवी श्रादि नौ द्रव्यों में ऐसा श्रात्मा ही हो सकता है, क्योंकि यह अग्राह्य है कि स्मृति तथा अन्य चैतसिक गुणों का प्राश्रय चेतन प्रात्मा के अतिरिक्त कोई दूसरा द्रव्य हो । किन्तु द्रव्य-गुण का सिद्धान्त सिद्ध नहीं है। बौद्ध इससे सहमत नहीं हैं कि स्मृति-संस्कारादि गुण पदार्थ है, द्रव्य नहीं है। उनका मत है कि यत्किचित् विद्यमान है वह सब 'द्रव्या है । वैशेषिक पुनः कहते हैं कि यदि वास्तव में श्रात्मा का अस्तित्व नहीं है तो कर्मफल क्या है ? बौद्ध कहते हैं कि पुद्गल का सुख दुःख का अनुभव ही कर्मफल है । वैशेषिक पूछते हैं कि श्राप पुद्गल से क्या समझते हैं ? बौद्ध कहते हैं कि जब हम 'अहम्' कहते हैं तब हमारा श्राशय 'पुद्गल' से होता है । यह 'अहम्' अहंकार का विषय है । वैशेषिक पूछते हैं कि फिर कर्म का कर्ता कौन है; फल का उपभोग करने वाला कौन है ? और उत्तर देते हैं कि कर्ता, उपभोक्ता अात्मा है। बौद्ध कहते हैं कि जिसे किसी कर्म का को कहते हैं, वह उसके सब कारणों में उस कर्म का प्रधान कारण है। काय-कर्म की उत्पत्ति का प्रधान कारण वास्तव में क्या है ? स्मृतिकर्म के लिए छन्द काम करने की अभिलाषा उत्पन्न करती है, छन्द से वितर्क उत्पन्न होता है, वितर्क से प्रयल प्रवृत्त होता है, इससे वायु उत्पन्न होती है, वायु से काय-कर्म होता है। इस प्रकिया में वैशेषिकों की आत्मा का क्या कारित्र है। यह अात्मा कार-कर्म का कर्ता निश्वर ही नहीं है। इसी प्रकार वाचिक तथा मानसिक कर्म को भी समझना चाहिये । यद्यपि वसुबन्धु श्रात्मा के दस्तु-मत् होने का प्रतिषेध करते हैं, तथापि बौद्ध-धर्म में प्रायः अनिश्चितता देखी जाती है । लोक की शाश्वतता के प्रश्न को ले लीजिए, इस प्रश्न के संबन्ध में भगवान् ने चार बातों का व्याकरण नहीं किया है। यदि प्रश्नकर्ता लोक से अात्मा का ग्रहण करता है तो, प्रश्न की चतुष्कोटि छायथार्थ हो जाती है, क्योंकि आत्मा का अस्तित्व परमार्थतः नहीं है। यदि वह लोक से मंसार का ग्रहण करता है,तो भी चतुष्कोटि अयथार्थ है। यदि संसार नित्य है तो मनुष्य निर्वाण की प्राप्ति नहीं कर सकता; यदि यह नित्य नहीं है तो सब आकस्मिक निरोध से प्रयत्न से नहीं, निर्वाण का लाभ करेंगे। यदि यह नित्य और अनित्य दोनों है, तो कुछ निर्वाण प्राप्त नहीं करेंगे और अन्य अकस्मात् प्राप्त करेंगे। यह कहना कि लोक संसार के अर्थ में न शाश्वत है, न अशाश्वत; यह कहने के बराबर है कि जीव निर्वाण की प्राप्ति नहीं करते हैं और करते भी हैं। यह विरोधोति है। वस्तुतः निर्वाण मार्ग द्वारा पाया जा सकता है । इसलिए कोई निश्चित उत्तर स्वीकार नहीं किया जा सकता।