पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३४६

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बोल-धर्म-दर्शन रिक (स्थूल), पृथगजनोचित और दुःख-पूर्ण है । पुण्य-कर्म, जो स्वर्ग का उत्पाद करता है, इसलिए शुभ नहीं है कि वह स्वर्ग का उत्पाद करता है; किन्तु इसलिए कि वह धमता के (धर्मों की अनादिकालिक शक्ति ) यथार्थ-शान की अपेक्षा करता है, क्योंकि यह द्वेष तथा परस्वहरण की इच्छा से रहित है। पुना दुःख का उत्पाद करना अकुशल-कर्म का स्वभाव ही है। कुशल-मूल प्रात्मतः कुशल है, इनसे संप्रयुक्त चेतना और चित्त संप्रयोगतः कुशल है। श्रात्मतः कुशल या संप्रयोगतः कुशल धर्मों से जिनका समुत्थान होता है, ऐसे काय-कर्म, वाक्- कर्मादि उत्थानतः कुशल है। लोभ, द्वेष, मोह अकुशल-मूल हैं। अलोभ, श्रद्वेष, अमोह कुशल-मूल हैं। मोह, विपर्यास, मिथ्याशान, दृष्टि है । अमोह इसका विपर्यय है। यह सम्यक् दृष्टि, विद्या, शान, प्रज्ञा है। अलोभ लोभ का प्रभाव नहीं है, अद्वेष द्वेष का प्रभाव नहीं है। यथा अमित्र 'शत्रु को कहते हैं, अमृत 'सत्य' को कहते हैं। इसी प्रकार अलोभ लोभ का प्रतिपक्ष है, अद्वेष द्वेष का प्रतिपक्ष है, इसी प्रकार अविद्या विद्या का प्रतिपक्ष है, विद्या का अभाव नहीं है। मूखत्रय का संबन्ध-लोभ और द्वेष का हेतु मोह है । हम राग-द्वेष केवल इसलिए करते हैं, कि इष्ट-अनिष्ट के स्वभाव के विषय में हमारा विपर्यास है। किन्तु पर्याय से राग- द्वेष भी मोह के हेतु हैं । जो पुद्गल राग-द्वेषवश पाप-कर्म करता है, उसका विश्वास होता है कि पुनर्जन्म में पाप का दुश्वविपाक नहीं होता। मोह से कर्म का प्रारंभ नहीं होता, किन्तु जो पुद्गल पाप-कर्म के विपाक में प्रतिपन्न नहीं है, वह राग या द्वेषवश अवध करेगा। मूलों का समुच्छेद-सत्र पुद्गल पुद्गल-भाव के कारण कुशल-अकुशल के भन्य है, क्योंकि उनमें कुशल-अकुशल मूल की प्राप्ति है। यह बात नहीं मूलों का सदा समुदाचार होता रहता है, किन्तु बाह्य प्रत्ययवश ( यथा इष्ट या अनिष्ट वस्तु का दर्शन ) इनका समुदाचार नित्य हो सकता है। हम उन पुद्गलों का वर्जन करते हैं, जिनके कुशल-अकुशल मूल का समुच्छेद हुआ है। कतिपय कर्म या लौकिक ध्यान से योगी अकुशल मूलों का तात्कालिक समुच्छेद करता है । निर्वाण-मार्ग से वह इनका श्रात्यन्तिक समुच्छेद करता है । मिथ्यादृष्टिवश कुशल-मूल का समुच्छेद होता है, किन्तु समुच्छिन्न कुशल-मूल का पुनरुत्पाद हो सकता है । इसलिए कुशल अकुशल से बलवत्तर है। रेप-प्रदेष-द्वेष सदा अकुशल है । वेस्-कर्मों का विपाक दुःखमय होता है। देष तथा ईर्ष्या, क्रोध और तर्जानत सव क्लेश, प्राणातिपात, उपघात, पारुष, पैशुन्य का मूल है । अतः इससे पर का विधात, दुःख होता है । अवद्य यह है, जो दूसरे का अपकारक है । द्वेष अकुशल है, क्योंकि यह उसका अपकारक है चो द्वेष करता है। यह चित्त का दूषक है । द्वेष दोष है । बो द्वेष या ईर्ष्या करता है, वह स्वयं दुःखी होता है । वह स्वभावत: कि इन सब