पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३४९

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अपोदश अध्याय दिका-दृष्टि है, जो दु.खादि सत्य वस्तुसत् का अपवाद करती है। अन्य दृष्टियां समारोपिका है। बौद्ध उसको नास्तिक कहते हैं, जो कहते हैं कि न दान है,न इष्टि; न हुत, न शुभ कर्म, न अशुभ कर्म; न माता, न पिता; न यह लोक है, न परलोक है; औपपादुक सत्व (जिसकी उत्पत्ति रज-बीर्य से नहीं होती ) नहीं है, अहत् नहीं है। किन्तु अपवादों में सबसे बुरा हेतु- फल का अपवाद है । 'न कुशल-कर्म है, न अकुशल-कर्म है।" यह हेनु का अपवाद है। 'कुशल-कर्म का विषाक-फल नहीं है ।' यह फल का अपवाद है । मिथ्यादृष्टि अकुशल क्यों है । वस्तुतः अकुशल वह है, जो नरक-यातना का उत्पाद करता है, जो परापकार करता है। कारण यह है कि जो पुद्गल पाप के फल में विश्वास नहीं करता, वह सर्व अवद्य के करने को प्रस्तुत रहता है। उसकी ही और अपत्राप्य की हानि होती है । मिथ्या-दृष्टि कुशल-मूल का ममुच्छेद करती है । अधिमात्राधिमात्र कुशल-मूल-प्रकार मृदु-मृदु मिथ्यादृष्टि से ममुच्छिन्न होता है । और इसी प्रकार मृदुमृदु कुशल-मूल-प्रकार अधि- मात्राधिमात्र-मिध्यादृष्टि से समुच्छिन्न होता है। कुशल-मूलों का अस्तित्व तब तक रहता है, जब तक उनका ममुन्छेद नहीं होता। नारकीय सत्व जन्म से पूर्वजन्म की स्मृति रखते हैं। पश्चात् वह दुःख-वेदना से अभ्याहत होते हैं । अतः उनमें कर्तव्य-अकर्त्तव्य की बुद्धि नहीं होती । उनकी मिथ्या दृष्टि भी नहीं होती, जो कुशल-मूल का समुच्छेद करती है, क्योंकि अापा- यिकों (दुर्गति को प्राप्त होने वालों ) की प्रज्ञा चाहे लिष्ट हो या अलिष्ट, दृढ़ नहीं होती। कुछ का ऐसा मत है कि स्त्रियाँ भी मूलच्छेद नहीं करती, क्योंकि उनके छन्द और प्रयोग मन्द होते हैं। पुरुषों में केवल दृष्टिचरित छेद करता है, तृष्णाचरित नहीं, क्योंकि दृष्टिचरित का अाशय, पाप, गूढ और दृढ़ होता है, और तृष्णाचरित का श्राशय चल है। इसी प्रकार पएडादि कुशल-मूल का समुच्छेद नहीं करते, क्योंकि वह तृष्णाचरित पक्ष के है; क्योंकि उनकी प्रज्ञा प्रायिकों के तुल्य हड़ नहीं होती । देव भी समुच्छेद नहीं करते क्योंकि उनको कर्म-फल का प्रत्यन होता है । अचिरोपपन्न देवपुत्र विचारता है कि "मैं कहाँ से च्युत हुश्रा ? कहाँ उपपन्न हुअा हूँ और किस कर्म से, १ वह मिथ्यादृष्टि में पतित नहीं होता, जिसने कुशल-मूल का समुच्छेद किया है, वह कुशल के अभव्य है । वह द्वेष और अकुशल छन्द में अभिनिविष्ट होता है। किन्तु उसमें इस विचिकित्सा या विमति का उत्पाद होता है कि-कदाचित् अवद्य है, कदाचित् कर्म का विपाक है, अथवा उसको यह निधय होता है कि अवद्य है और हेतु-फल अवश्य होते हैं, तब कुशल-मूल प्रतिसंहित होते हैं। किन्तु जिस अानन्तर्यकारी ने कुशल-मूल" समुच्छेद किया है, वह दृष्टधर्म (इस बन्म ) में कुशल-मूल का ग्रहण करने के लिए अभव्य है। किन्तु वह नरक से व्यवमान हो, या नरक में उपपद्यमान हो, अवश्य ही उससे पुनः समन्वागत होगा। दो प्रकार हैं: १. जिसने स्वतः मिथ्याडष्टि का संमुखीभाव किया है; २. जिसने अयथार्थ शास्ता का अनु. सरयामात्र किया है। L.