पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३६०

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२०२ बौदाम अश्व, वह सदा अानन्तर्य से स्पृष्ट होते हैं। अत: नो सत्व पूर्वकृत शुभ कर्मवश नरक और तिर्यक योनि के अनन्तर मनुष्य-जन्म लेते हैं, वह मनुष्य-जन्म में अपने पूर्वहंश से समन्वागत होते हैं, और यह कैश नरकवास या तिर्थक्योनि में पास के कारण बहुलीकृत होते हैं। कल्प के निर्याण-काल में पुद्गल अधर्मरागरक्त, विषयलोभाभिभूत और मिथ्याधर्मपरीत हो जाते हैं। शस्त्र, रोग और दुर्भिक्ष से कल्प का निर्गम होता है। उस समय कषाय अभ्यधिक होते हैं। इसलिए मनुष्यों में बहुत ऐसे होते हैं, जिनमें अभीक्ष्ण क्लेश होता है। यह निर्वाण में श्रावरण है। शावरण सर्वपापिष्ठ है। मिथ्यादृष्टि से समन्वागत मनुष्यों की संख्या और भी अधिक है। विसंयोग-फान हमने अबतक सासव कर्मों के फल की परीक्षा की है। यह कर्म कुशल या अकुशल है, और राग ( सुख की इच्छा या ध्यान-लोक की इच्छा) तथा मोह (श्रात्मदृष्टि) से लिष्ट है। तृष्णा से अभिष्यन्दित यह कर्म विपाक-फल देते हैं, किन्तु अनाभव कर्म का विपाक नहीं होता। क्योंकि यह अन्य तीन कर्मों का क्षय करता है | यह अशुक्ल है । यह धातुपतित नहीं है । यह प्रवृत्ति का निरोध करता है। अनासव कर्म के फल विसंयोग-फल कहते हैं। ये कर्म मोह और क्लेश के मूल का समुच्छेद करते हैं, अर्थात् क्लेश-प्राप्ति का समुच्छेद करते हैं । जो आर्य इन अनास्तव कर्मों को संपादित करता है, उसका क्लेश समुदाचार नहीं करता। वह क्लेशों के निष्यन्द-फल का समुच्छेद करता है। कुछ सासव कर्म, जो वैराग्य के लौकिक मार्ग में संग्रहीत हैं, अपने प्रतिपक्षी क्लेशों से विसयोग-फल अनैकान्तिक रूप से प्रदान करते हैं। जो योगी बीत-कामराग है, वह काम- भूमिकलेशों की प्राप्ति का छेद करता है । पुनः यह पूर्वकृत कर्म और काम की प्राप्ति का छेद करता है। वह इन कर्मों के विपाक का उल्लंन करता है। पुरुषकार (पौरुष )-फल सहभू-हेतु और संप्रयुक्तक-हेतु का फल है। पुरुषकार पुरुषभाव से व्यतिरिक्त नहीं है, क्योंकि कर्म कर्मवान् से अन्य नहीं हैं। जिस धर्म का बो कारित्र है, वह उसका पुरुषकार कहलाता है, क्योंकि वह पुरुषकार के सदृश है। एक मत के अनुसार विपाक-हेतु को छोड़कर अन्य हेतुओं का भी यही फल होता है। वस्तुतः यह फल सहोसन है, या समनन्तरोपन है; किन्तु विपाक-फल ऐसा नहीं है। अन्य श्राचार्यों के अनुसार विपाक-हेतु का एक विप्रकृष्ट पुरुषकार-फल भी होता है। का-विपाक कर्म बीच के सदृश स्वकीय सामथ्र्य से अपने फल का उत्पाद करता है। अत: कर्मों की धर्मता नियत है। किन्तु बौद्ध-धर्म यह स्वीकार करता है कि कर्म-फल का उल्लंघन संभव है, और वह पुण्य-परिणामना भी मानता है।