पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३६१

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प्रयोदश अभ्याम २०३ आर्य ऋषि आदि का महान् सामथ्र्य होता है। उनके मनःप्रदोष से दण्डकादि निर्जन हो गये । मस्य-क्रिया ( सच्चकिरिया) में विश्वास बड़ा प्राचीन है। विशुद्ध पुरुष अपनी विशुद्धि का प्रख्यापन कर धर्मता से ऊपर उठ जाता है। अशोक का पुत्र कुणाल शापित करता है कि अपनी माता के प्रति उगका कभी दुष्टचिन नहीं हुआ। इस सत्यक्रिया से वह अपनी अांखों से देखने लगता है। पुण्य-अपुण्य प्राशय पर श्राश्रित है, किन्तु क्षेत्र के अनुसार पुण्य-पुण्य अल्प या महान होता है। कर्म-विपाक दुर्विज्ञेय है। कर्म बीज के समान है, जो अपना फल प्रदान करता है । यह सुन्वा या दुःखावेदना है । कर्म का विप्रणाश नहीं है। जब समय श्राता है, और प्रत्यय-मामग्री उपस्थित होती है, तब कर्मों का विपाक होता है । यमराज के निरयपाल सत्व को ले जाते हैं, और यम से दण्ड-प्रणयन के लिए प्रार्थना करते हैं । यमराज उससे पूछते हैं कि तुमने देवदूत को नहीं देखा १ वह कहता है कि देव ! मैंने नहीं देग्वा है । यम : ---तुमने क्या जरा-जीर्ण, रोगी, अवधकारी को नहीं देखा है । तुमने यह क्यों नहीं जाना कि तुम भी जाति, जग, मन्यु के अधीन हो ? तुमने यह क्यों नहीं सोचा कि मैं कल्याण कर्म करूं ? यह पापकर्म न तुम्हारी माता ने किया है, न तुम्हारे पिता ने, न तुम्हारे भाई-बहन ने, न तुम्हारे मित्र-अमान्य ने, न ज्ञातृ-संबन्धियों ने, न श्रमण-ब्राह्मण ने, न देवताओं ने । तुमने ही यह पारकर्म किया है। इसके विपाक का प्रतिसंवेदन तुम्हीं करोगे। यह कथा लोक-विश्वास पर आश्रित है। यम केवल नारकों के दण्ड का प्रणयन करता है । पुनः यम के निस्यपाल नारकों को दण्ड नहीं देते हैं। उनकी यातना उनके स्वकीय कों के कारण है। यथार्थ में कम बीज के. नुल्म हैं। यह अपनी जाति के अनुसार, जल्दी था देर से, अल्प या महान् फल देने हैं। किन्तु ईश्वरवादी कहते हैं कि यद्यपि ममग्र बीज का वपन उर्वरा भूमि हो, तथापि वर्षा के अभाव में बीज में अंकुर नहीं निक नते। अतः उनका कहना है कि यह ईश्वर की शक्ति है, जो कर्मा को विपा प्रदान का मामयं देती है । बौद्ध कहते हैं कि तृष्णा से अभिष्यन्दित हो कर्म विपाक देते हैं । आर्य नृभ्णारहित हो कर्म करता है, इमलिए. वह कर्म से लिप्त नहीं होता। कर्म-विपाक के संबन्ध में विभिन्न मत सर्वास्तिवादी ( वैभाषिक) के मन में विधाक-फल समनन्तर नहीं होता। कर्म का विपाक सुखा दु.स्वावदना है। यह विपाक-कर्म के संपान के बहुत काल पश्चात् होता है। कहते है कि कर्म अपने विपाक पल को क्रिया-काल में अानित करता है, और कर्म के अतीत होने पर विपाक का दान करता है। एक कठिनाई है। सर्वास्तिवादी का मत है कि अतीत और अनागत का अस्तित्व है । हेतु-प्रत्यय अनागत को प्रत्युत्पन्न में उपनीत करते हैं । अनित्यता प्रत्युत्पन्न को अतीत में ले जाती है। ३५