पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३६४

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बौद-धर्म-वाम गुगक्षेत्र में किया हुअा कर्म मी नियत-विपाक है, यथा-पितृवध नियत-विपाक है। जो कम बुद्ध, संघ, आर्य, माता-पिता के प्रति किया जाता है, वह नियत-विपाक है । तीन प्रकार के कर्म है १. जिसका विपाक नियत है, और जिसका विषाक-काल नियत है, जिसने श्रानन्तर्य-कर्म किया है, वह उसका फल अगले जन्म में अवश्य भोगेगा। उसका नरक में विमिपात होगा। २. वह कर्म जिसका विपाक नियत है, किन्नु काल नियत नहीं है । एक मनुष्य ने एक कर्म उपचित किया है, जिसका विपाक नियत है, और स्वभान ऐसा है कि वह केवल काम-धातु में ही विपच्यमान हो सकता है; या ऐसा है, जो स्वर्ग या नरक में फल दे सकता है, किन्तु वह ऐसा नहीं है कि समनन्तर जन्म में ही इसकी उपत्ति हो। यह कर्म दूसरे कर्म से पिहित हो सकता है। यदि यह पुद्गल अार्य-मार्ग में प्रवेश करता है; काम से वीतराग होता अनागामी होता है, तो वह इसी जन्म में उस कर्म के फल का प्रतिसंवेदन करेगा। यह अपर- पर्याय-वेदनीय कर्म था, यह दृष्टधर्म-वंदनीय हो जाता । यहाँ अंगुलिमाल का दृधान्त द्रष्टव्य है [ मज्झिमनिकाय, रा६७ --- अंगुलिमाल एक डाकू था। उसने गांवों को, निगमों को, जनपदों को नष्ट कर दिया । वह मनुष्यों को मारकर उनकी अंगुलियों की माला बनाकर पहनता था। एक समय भगवान् श्रावस्ती में चारिका करते थे। वह उस स्थान की ओर चले, जहां अंगुलिमाल रहता था। अंगुलिमाल ने दूर से भगवान् को देखकर विचारा:-प्राश्चर्य है इस मार्ग से कोई नहीं आता; यह श्रमण एकाका पा रहा है। वह भगवान् के पीछे हो लिया । भगवान् ने ऐमा ऋद्धि-संस्कार किया कि डाक् उनको न पा सका । डाक को बड़ा अाश्चर्य हुआ, क्योंकि वह दौड़त हाथा को भी मारकर गिरा देता था। उसने भगवान् से रुकने को कहा--भगवान् कहा-मैं ठहरा हूं । तुम सका । डाकू न इसका अर्थ पूछ। । भगवान् ने कहा-मैं सब जीवों में दण्ड स विस्त हू । तुम असंयत हो। इसलिए तुम अस्थित हो, मैं स्थित हूँ। यह सुनकर अंगुलिमाल की वैराग्य उत्पन्न हो गया। उसने प्रव्रज्या ली और भिक्षु हो गया । अंगुलिमाल प्रातःकाल पात्र-त्रावर लकर श्रावस्ती में मिक्षा के लिए, प्रविष्ट हुा । किसी ने उस पर ठेला फेंका, किसा ने दण्ड का प्रहार किया। उसका सिर फट गया, पाव टूट गया, और संघाटी फट गई । मगवान् ने उससे कहा :--हे अंगुलिमाल ! जिस कर्म के विपाक से तुमको निस्य में सहसों वर्ष निवास करना पड़ता, उस कर्म के विपाक-संधेदन तुम इसी जन्म में कर रहे हो। ३. वह कर्म जिसका विपाक अनियत है। सोत-आपन्न की संतात का, अपायगामिक पूर्वोपचित कर्म के विपाकन्दान में वैगुण्य है। क्योंकि प्रयोगशुद्धि और त्रिरक्ष (बुद्ध, धर्म, और संघ) के प्रति श्राशय-शद्धि के कारण उसकी संतति बलवान् कुशल-मूला से अधिवासित है । अबुध अल्प पाप भी करके अधोगति को प्राप्त होता है, बुध महापाप भी करके अपाय का त्याग करता है । थोड़ा भी लोहा पिण्ड के रूप में जल में डूब जाता है, और यही लोहा प्रभूत भी क्यों न हो, पात्र के रूप में तैरता रहता है ।