पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३७३

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चतुर्दश अध्याय प्रात्मा नित्य और लोकोत्तर है । बौद्ध-धर्म श्रात्मा का प्रतिषेध करता है। यह अपवादिका बुद्धि कर्म, कर्म-फल, और प्रतिसंधि की बुद्धि का विनाश करती है। इस समस्या के दो समाधान है:- १. पहला पुद्गलवादियों का समाधान है। दुर्भाग्यवश उनके शास्त्र नष्ट हो गये है, और यह 'तीर्थिक समझे जाते हैं। प्रायः पाँच या सात निकाय इस वाद के मानने वाले थे। 'पुद्गल' का निर्वचन स्पष्ट नहीं है । जैनागम में 'पुद्गलास्तिकाय नाम की संज्ञा है । इसका अर्थ 'अबीव' है । बौद्धों में आत्मा के लिए पुरुष, जीव, सल्व, पोष, अन्तु, यद और पुद्गल [सुत्तनिपात, ८७४ ] यह श्राख्याएँ, मिलती हैं। पुद्गल का चीनी अनुवाद 'पुरुष है । तिब्बती निर्वचन इस प्रकार है--पूयते, गलति चेति पुद्गलः । 'अष्ट पुद्गल' पाठ श्रार्य हैं । इतिवृत्तक, २४ में कहा है कि यदि किसी एक पुद्गल के विविध भवों की सब अस्थियाँ एकत्र की जायं तो उनका एक पर्वत हो जायगा । भारहारसूत्र में इस शब्द का पारिभाषिक अर्थ इस प्रकार है--पाँच स्कन्ध भार है... पुद्गल भारहारक है, यथा--अमुक गोत्र का, अमुक नाम का यह आयुष्मान् भितु । भार का श्रादान तृष्णा है, जो पुनर्भव का उत्पाद करती है, उसका निक्षेप इस तृष्णा का सर्वथा क्षय है, [ संयुत्त ३३२५; संयुक्त २२१२२; उद्योतकर कृत न्यायवार्तिक, ३४२] । जिस काल में पुद्गलवादियों ने अपने वाद को सुपल्लवित किया, उस समय नैरात्म्यवाद सब निकायों को मान्य था। अतः पुद्गलवादियों ने यह निश्चय किया कि कम से कम पुद्गल के स्वभाव का लक्षण नहीं बताया जा सकता । "पुद्गल न स्कन्धों से भिन्न है, न अभिन्न । इस दृष्टि का समर्थन भगवान् के इस वचन से होता था--जीवितेन्द्रिय शरीर से अभिन्न नहीं है; जीवितेन्द्रिय शरीर से भिन्न नहीं है।" इस प्रकार का भी दूसरों के समक्ष प्रात्मा का प्रतिषेध करते हैं। इनको बोधिचर्यावतार में 'सौगतमन्या, 'अन्तश्वर सीर्थिक कहा है। पुद्गल की उपलब्धि पंच विज्ञान-काय और मनोविज्ञान से होती है, किन्तु स्कन्ध-व्यतिरिक्त अर्थात् शरीर-वेदना-विज्ञान के अतिरिक्त उसकी उपलब्धि नहीं होती। अतः यह स्कन्धों से अन्य नहीं है, यथा--अग्नि इन्धन से अन्य नहीं है । विपक्ष में पुद्गल स्कन्ध-स्वभाव नहीं है, क्योंकि उस विकल्प में वह जनन-मरण-शील होगा । पुनः पुद्गल कर्म का संपादन करता है, संसरण करता है, अपने कर्मों के फल को भोगता है, और निर्वाण का लाभी होता है । बुद्ध कहते है कि इतने कल्प व्यतीत हुए कि मैं सुनेत्र नामक ऋषि था । अतः पुद्गल एक वस्तु-सत् है, एक द्रव्य है, किन्तु इसका स्कन्धों से संबन्ध अनिर्वचनीय है। इसी प्रकार यह न नित्य न अनित्य । २. दूसरा समाधान यह है कि जिसे लोक में आत्मा श्रादि कहते है, वह एक सन्तान ( सन्तति ) है, जिसके अंगों का हेतु-फल-संबन्ध है। यह श्रात्मा का अपवाद है, किन्तु मात्मा जीवित है, यद्यपि वह एक नित्य द्रव्य नहीं है। प्रात्मा का यह समाधान प्रायः मान्य है, किन्तु सन्तति का निर्देश भिन्न प्रकार से किया जाता है । वह बौद्ध-धर्म की विचित्रता है कि