पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३७६

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२८ बौर-धर्म दर्शन 'कथावत्थु' की अर्थकथा के अनुसार यह कहना कि पुद्गल का निर्वाण में अस्तित्व है, नित्यता की प्रतिज्ञा करना है, और इसका प्रत्याख्यान करना पुद्गल के निरोध को स्वीकार करना है। भव्य के अनुसार वात्सीपुत्रीय कहते है कि हम न यही कह सकते हैं कि निर्वाण धर्म है, और न यही कह सकते है कि यह उनसे श्रन्य है। विधानवाद प्राण-प्राहक को कल्पना से क्लिष्ट विशिष्ट चित्तों से भिन्न एक विशुद्ध 'प्रभास्वर-चित्त मानता है। हीनयान में इस मत का पूर्वरूप है [ अंगुत्तर १।१०, अभिधर्मकोश, १/७५, दीघनिकाय १७६; बुद्धघोष प्रस्थसालिनी, पृ. १४. ] | अत: पांच या आठ पुद्गलवादी निकाय, चार महासांघिक निकाय, ( महासांधिक, एकव्यवहारिक, लोकोत्तरवादी, कुकटिक) और विभज्यवादी निर्वाण की इस कल्पना को मानते हैं। किन्तु चिन निकायों को हम सबसे अधिक जानते हैं, वह नैरात्म्यवादी है। नैरात्म्य को मानते मी सन्तति के नैरन्तर्य में विश्वास किया जा सकता है। श्रार्य दग्ध-बीज के सदृश अनिष्ट और कथ्य-चित्त का उत्पाद करके सन्तति का उच्छेद करता है । यथा प्रशस्तपादभाष्य में कहा है :-"अत्यन्तमुच्छिद्यते सन्ततित्राद् दीपसन्ततिवत् ।" वह कहते हैं कि यदि प्रात्मा सन्ततिमात्र है, तो निर्वाण प्रभावमात्र है । मझिमनिकाय में कहा है :-"न कत्यचि उप्पज्जति न कुहिंचि उप्पज्जति" [ मझिम ३।१०३ ।। किन्तु बौद्धों की दृष्टि में निर्वाण और आत्मा के प्रश्न एक दूसरे से संबद्ध नहीं है । सौत्रान्तिक निर्वाण को प्रभाव मानते हैं। किन्तु वैभाषिक उसे द्रव्य-सत् मानते हैं । सौत्रान्तिको का मत है कि निर्वाण हेतु-फल-परंपरा का उच्छेद है । वैभाषिकों के मत में इस उच्छेद का हेतु निर्वाण का प्रतिलाभ है। वैभाषिकों के अनुसार निर्वाण में प्रतिसंधि और मृत्यु का सर्वथा निरोध है; निर्वाण अजात और अविपरिणामी. है; यह क्लेश दुःख और भव का निरोध करने पाला सेतु है । यहां तक समझने में कोई कठिनाई नहीं है। किन्तु प्रश्न है कि मरणानन्तर श्रार्य का निर्वाण से क्या संबन्ध होगा। हम जानना चाहते हैं कि यह निकाय निर्वाण-प्रवेश का स्या अर्य करता है, उस निर्वाण का जिसका अवस्थान आर्य के चरम चित्त के अनन्तर होता है। (बुद्धघोष )। हमको इन प्रश्नों का उत्तर नहीं मिलता। चित्त-निरोध और स्कन्धों का अत्यय होने से ही निर्वाण में प्रवेश होता है। यही मोक्ष है। किन्तु जो स्वीकार करता है कि मोक्ष है, वह यह भी मानता है कि मोद नित्य और शान्त है। अन्यथा मोक्ष में किसी को भी रुचि न होगी [संघमद्र, अमिधर्मकोश ५/८]। श्राभिधार्मिक कहता है कि यह वस्तु-सत् है, और उसका एक प्राकार दुःख-विमोक्ष है, किन्तु उसके संबन्ध में न यह कह सकते हैं कि इसका अस्तित्व है, और न यह कह सकते हैं कि नहीं है। पर्म-निर्वाय इस जन्म में अमृत का सुख होता है, यह भाव भी योग से लिया गया है। अंगुत्तर २२.६, मझिम १२३४१, अभिधर्मकोश ३३१२, इत्यादि में कहा है कि वह विमुक्त है, निवृत है, विगत-तृष्ण है। योगी समापत्ति में प्रवेश करता है । विस क्षण में