पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३७७

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माश अभाव प्रशा का उत्पाद होता है, उस क्षण में वह निर्वाण का साक्षात्कार करता है। [ मज्झिम १५१, अंगुत्तर १।१४६, निन्बानं पचत्तं वेदितब्ब विहि । श्राभिधार्मिक कहते हैं कि प्राशताबीन्द्रिय से समन्वागत आर्य ही निर्वाय का दर्शन परता है, यह इन्द्रिय 'अरियनक्खु' (प्रार्यचक्षु) कहलाती है। यह मन का वेदना. विशेष और श्रद्धादि पंचेन्द्रिय से संप्रयोग है। इस इन्द्रिय के द्वारा निर्वाण का 'उपभोगा होता है । क्योंकि आर्य सौमनस्य और सुख का अनुभव करता है, बो निर्वाण को स्पृष्ट करके ही होता है। [ अभिधर्मकोश १।१०१, २।११०, ११२, ११६] । ध्यान और प्रारूप्यों के अभ्यास से निर्वाण में सहायता मिलती है, किन्तु बुद्ध को यह समापत्तियां अपर्याप्त प्रतीत हुई। उन्होंने इस कमी को पूरा किया। उनकी शिक्षा है कि निर्वाण 'संदिटिका ( दिधम्म-निब्बान ) है । बुद्ध कहते हैं कि राग के प्रहाण से अमृतस्त्र का भाक्षात्कार होता है [ मंयुन ५।१८१]। अन्यत्र दृधधर्म-निर्वाण को क्षय-शान से संशावेटित- निरोध कहा गया है [ अंगुत्तर ४/४५४] । यह दो परस्पर विरोधी संज्ञाएं हैं। उदायी श्रानन्द से पूछते हैं-दृष्टधर्म-निर्वाण क्या है ? आनन्द उत्तर देते हैं--काम-सुख से वीतराग भिक्षु ध्यान और प्रारूप्यों में समापन्न होता है । इन अवस्थाओं में से प्रत्येक के लिए. भगवान् ने पर्याय से कहा है कि यह दृष्टधर्म-निर्वाण है। किन्तु जब भिक्षु चतुर्थ श्रारूप्य का समतिक्रमण कर संज्ञावेदित-निरोध का साक्षात्कार करता है, और वहाँ श्रवस्थान करता है, और ज्ञान द्वारा उसके क्रेश क्षीण होते हैं, तब भगवान् इस अवस्था को निष्पायेण दृष्टधर्म-निर्वाण कहते हैं [अंगुत्तर ४४५४] एक दूसर। वाक्य है--'दृष्टधर्म-सुख-विहार' । श्राभिधार्मिक इस वाक्य का व्यवहार केवल अर्हत् के लिए करते मालूम होते हैं। निर्वाण की प्राप्ति एक बात है; निर्वाण का सुख दूसरी बात है। श्रार्य निर्वाण की प्राप्ति करता है। उसके क्लेश क्षीण होते हैं, क्योंकि उसके और निर्वाण के बीच एक संवन्ध-विशेर होता है। आर्यत्व निर्वाण नहीं है, किन्तु निर्वाण की प्राप्ति है। अाभिधार्मिक विशेष करते हैं--१. आत्यन्तिक निर्वाण और कैश क्षय, २. निर्वाण की प्राप्ति, जो सर्व क्लेश और अपूर्व भव को अनुत्पत्तिधर्मा बनाती है । यह सोपधिशेष निर्वाण है । ३. निर्वाण-प्राप्ति का ज्ञान । इस ज्ञान का लाभ ध्यान में होता है । यह सुख है। यह इम लोक का अग्र-निर्वाण है। ४. संशावेदितनिरोध की प्राप्ति। इसका संवेदन काय से होता है। ५. चरम-चित्त में निर्वाण-प्रवेश। यह निरुपधिशेष निर्वाण है । ६. अमुक अमुक क्लेश के प्रति निर्वाण की प्राप्ति । यह अांशिक प्रार्यत्व है। निर्माण का स्वरूप-परम्परा के अनुसार कुछ प्रश्न स्थापनीय है, जिनका विसर्जन भगवान् ने नहीं किया है। त्रिपिटिक में यह स्थापनीय प्रश्न पाये जाते हैं । बुद्ध इस प्रश्न का उत्तर नहीं देते कि तथागत है, या नहीं। वह इस प्रश्न का भी उत्तर नहीं देते कि जीवितेन्द्रिय शरीर से भिन्न है या अभिन्न । परमार्य- १०