पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३७८

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पौर-पमान रष्टि से सत्य की सत्ता नहीं है। सत्व संवृति-सत् है, वह प्रशतिमात्र है । वसुबन्धु [ अभिधर्म- कोरा,६] इस संबन्ध में नागसेन की एक कथा का उल्लेख करते हैं। वसुबन्धु कहते है कि मावान् प्रभकर्ता के श्राशय को ध्यान में रखकर उत्तर देते हैं। जीवितेन्द्रिय संबन्धी स्थापनीय प्रम का अर्य पुद्गलवादी अन्य प्रकार से करते हैं। यदि बुद्ध तत्त्व या अन्यत्व का प्रतिषेध करते है, तो इसका कारण यह है कि पुद्गल यथार्थ में स्कन्धों से अभिन्न नहीं है, और न सनसे मित्र है । स्कन्धों के प्रति पुद्गल अवाच्य है । "स्कन्धों से पृथक् पुद्गल की उपलब्धि नहीं होती। अतः यह उनसे भिन्न नहीं है। यह तस्वभाव नहीं है, क्योंकि उस अवस्था में यह जन्म-मरण के अधीन होगा। पुद्गल द्रव्य है; यह कर्म का कारक और फल का भोका है। निर्माण का प्रश्न स्थापनीय नहीं है, किन्तु निर्वृत आर्य का प्रश्न स्थापनीय है । निर्वाण है, किन्तु यह क्या है । इसका उत्तर नहीं है। सौत्रान्तिक प्रकाश के तुल्य निर्वाण का प्रतिषेध करते हैं। वह कहते हैं कि यह अभावमात्र है। सर्वास्तिवादियों का मत है कि निर्वाण परमार्थ-सत्, द्रव्य, 'अस्थिधम्म' (धुघोष ) है। बुद्ध ने निर्वाण का व्याकरण किया है, क्योंकि यह तृतीय आर्य-सत्य है । यह 'लक्षण-धर्म ( लक्खण-धम्म ) है। दुःख का निरोध है, और दुःख-निरोध का अर्थ, विषय, ( वत्युसच्च = वस्तु-सत्य ) भी है, अर्थात् उसका विषय असन्मात्र, विरोधमात्र नहीं है; किन्तु द्रन्य-सत् है [ कथावत्यु]। प्रारंभिक काल के बौदों के लिए एक दूसरा प्रश्न है । निर्वाण है, किन्तु उसका स्वरूप हम क्या समझते हैं? क्या हम यह कह सकते है कि मुक्तावस्था का अस्तित्व कहाँ है । स्या यह कहना अधिक ठीक होगा कि इसका अस्तित्व नहीं है । अथवा क्या हम यह कह सकते है कि यह है भी, और नहीं भी है; या इनमें से हम कुछ भी नहीं कह सकते । इन प्रश्नों का उत्तर बुद्ध ने नहीं दिया है । निर्वाण है, किन्तु वह अनाख्यात है। इसका प्रमाण है कि निकायों ने इन दो प्रश्नों में विशेष किया है। वैभाषिक निर्वाण के प्रश्न को स्थापनीय नहीं समझते। निर्वाण है, किन्तु तथागत का मरणानन्तर अस्तित्व रहता है या नहीं, यह प्रश्न स्थापनीय है, क्योंकि तथागत प्रधिमात्र है। स्थविरों के लिए निर्वाण का प्रश्न स्थापनीय है, क्योंकि निर्वाण प्रज्ञप्तिमात्र है । उनका यह मत उस सूत्र के आधार पर नहीं है, जिसमें तथागत के अस्तित्व के प्रश्न का उल्लेख है, किन्तु यह शारिपुत्र के एक दूसरे सूत्र पर आश्रित है, जिसमें बह निर्वाण के प्रश्न का व्याकरण नहीं करते [ अंगुत्तर रा१६१ ] | परिनिर्वत चक्षुरादि से जाना नहीं जाता, यह कई स्थलों में निर्दिष्ट है :- "चन श्रार्य का तिरोभाव होता है, तो क्या यह कहना चाहिये कि वह नहीं है (नस्थि), वह सदा के लिए अरोग ( सस्सतिया अरोगो) है। जिसका तिरोभाव हुश्रा है, उसका कोई प्रमाण नहीं है। उसके संबन्ध में सर्व बुद्धि की, सर्व वचन की, हानि होती है" [सुत्त- निपात १.७४ |