पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३७९

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चतुर्दश अध्याय "तथागत के संबन्ध में यह प्रप्ति नहीं हो सकती कि वह रूपादि है। इन प्राप्तियों से वह विनिमुक्त है । वह महोदधि के सदृश गंभीर और अप्रमेय है। उसके लिए हम नहीं कह सकते कि वह है, वह नहीं है, इत्यादि । [ संयुत्त ४।३७४ ] । "वह गंभीर, अप्रमेय, असंख्य है। उमे निवृतः कहते हैं, क्योंकि उसके राग, देष और मोह क्षीण हो चुके हैं। ( नेत्तिप्पकरण )। इन वचनों की सहायता से हम समझते हैं कि बुद्ध ने भय और विभव की तृष्णा की क्यों निन्दा की है [ अभिधर्मकोश ५।१६. ] । इनमें से एक भी निर्वाण नहीं है । इसी कारण से बुद्ध दो अन्तो का अपवाद किया करते हैं। यह कहना कि जो भिक्षु क्लेरा-ज्ञय करके मृत्यु को प्राप्त होता है, वह निबद्ध हो जाता है, उसका अस्तित्व और नहीं होता (न होति ), पापिका दृष्टि है [ संयुत्त ३।१०६ ] | दूसरी ओर यह कहना कि श्रार्य दुःख से विनिमुक्त हो नित्य श्रारोग्यावस्था में अवस्यान करता है, उचित नहीं है। (किन्तु निर्वाण का लक्षण 'आरोग्य' कहा गया है)। पुसे का विचार है कि इनमें से कई निरूपण कृत्रिम है । उनका विश्वास है कि एक समय था जब बोद्ध-धर्म इन वादों से विनिमुक्त था और निर्वाण-लाभ के लिए सर्व ज्ञेय के सर्वथा शान को आवश्यक नहीं समझा जाता था। निर्माण श्रभावमात्र है, इस विचार से भी वह परिचित नहीं था । वह अभी किसी पद्धति में गठित नहीं हुअा था, किन्तु वह बुद्ध में, प्रतिसंधि में, निर्वाण में, और परम-क्षेम में विश्वास करता था। हमको ऐसी गाथाएँ मिलती है, जहाँ 'सन्तान' शब्द प्रयुक्त हुआ है। निर्माण के संबन्ध में वह गाथाएँ अपने को स्पष्ट शब्दों में व्यक्त करती है । यह सन्तान ऐसी है, यहाँ कोई लजा नहीं है । स्कन्धों का इस प्रकार संप्रधारण कर वीर्यवान् भिन्तु राग का प्रहाण करता है; शरण का अन्वेषण करता है; यह समझ कर कि उसका शिर अग्नि से प्रचलित हो रहा है, वह अ-बल, ध्रुव को लक्ष्य मानकर अग्रसर होता है [ संयुत्त ३११४३ ] | किन्तु वह परिनिर्वृत अायं की अवस्था के संबन्ध में किसी प्रकार की कल्पना करने का प्रतिपय करता है । क्योंकि वह वाणी और मन से प्रतीत हो गया है । जिस प्रकार वह काम-मुम्ब और कष्ट-तप दोनों अन्तों का परिहार करता है, उसी प्रकार वह शाश्वतत्व, विमय, लोकप्रभा अादि को निन्दा करता है। यह दृष्टियों को विपर्यास और मोह का कारण समझता है । बो कहते हैं कि तर्क मेरी ओर है, आपका वाद मिथ्या है, जो मैं कहता हूँ वह सत्य है, अन्य सब मूर्खता है, उनका प्रलाप शान्ति, वैराग्य और मोक्ष के अनुकूल नहीं है। पुसे के अनुसार हीनयान एक विद्या नहीं है। योग की अन्य शाखाएँ हैं, जिनमें मोक्ष किसी विद्या पर प्राश्रित है। इनमें आत्मा और ईश्वर के तादात्म्य-शान पर, अथवा प्रकृति और पुरुष के विवेचनात्मक ज्ञान पर मोक्ष निर्भर करता है। किन्तु यह शन श्राध्यात्मिक नहीं है । यह मानना कि शरीर अमेध्य है, जोवन क्षणिक है, वेदना दुःखात्मक है, वस्तु सारहीन है; 'शान' नहीं है। यह एक दृढ़ विश्वास है, जो राम का क्ष्य करता है।