पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३८२

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२६५ बौदाम-दर्शन मझिम ११४८७, थेरीगाथा ११५, है। निर्वाण का लक्षण कुछ भी क्यों न हो, यह 'अनुत्पाद है। स्थविर निर्वाण को परमार्थ-सत् नहीं मानते [अभिधर्मकोय ६।४]। स्थविर के अनुसार निर्वाण का प्रश्न १४ स्थापनीय प्रश्नों में से है। [ अंगुत्तर २२१६४; संघभद्र की आलोचना के लिए कोश ६।४ देखिये। सौत्रान्तिक यह निष्कर्ष निकालते हैं कि सूत्र का यह दृष्टान्त प्रणीत है। यथा-अग्नि का निर्वाण है, तथा चेतोविमुक्ति है। अग्नि का निर्वाण, अग्नि का प्रत्ययमात्र है । यह द्रव्य नहीं है [कोश रा५५ ] 1 पर संदर्भ मालूम होता है कि अग्नि का निर्वाण अग्नि का प्रभाव नहीं है [ उदान ८/१., मुत्तनिपात १.७४ ] | संधभद्र का निरूपण है कि अग्नि की उपमा से हमको यह कदने का अधिकार नहीं है कि निर्वाण 'अभाव है। यह निर्वाण का दृष्टान्त नहीं है, किन्तु यह निरुपधिशेष निर्वाण-प्रवेश के क्षण में जिसका प्रत्यय होता है, उसकी उपमा है [कोश ६।६६] । राग और चित्त के निरोध होने पर ही प्रवेश हो सकता है। प्रसंस्कृत के संबन्ध में वचन ऐसे भी वचन हैं जो असंस्कृत को अभाव बताते हैं, किन्तु अनेक वचन ऐमे भी है जो असंस्कृत का लक्षण अमृत, अकोप्य, अवाच्य, और द्रव्य बताते हैं । प्राचीन साहित्य में अनेक वाक्य है, जो इसका समर्थन करते हैं कि यह 'भाव' है । अमृत और असंस्कृत यह दो संज्ञाएं एक ही समय की नहीं है । निर्वाण अमृत है, यह पुरातन विचार है । निर्वाण अकृत, असंस्कृत है, यह अाल्याएं उतनी पुरानी नहीं है, और ये पारिभाषिक शब्द है। जन लोक- धातु की कल्पना हुई, तब निर्वाण को प्रतीत्यसमुत्पाद की तंत्री से बहिर्गत किया, और असंस्कृत की संज्ञा दी। १, धम्मपद में इसे 'अमतं पदं' कहा है । थेरीगाथा [ ५११-११३ ] में कहा है --- अजरं हि विजमाने किन्तव कामेहि ये सुजरा। साव्याधिहिता इदमजरमिदममर इदमानरामरणपदमसोक। श्रसपत्तमोबाध अर्खालतममयं अधिगमिदं बहहिं अमतं अज्जापि च लभनीयमिदं । यो योनिमो पयुञ्जति न च सका अपमानेन ।। मझिम [ १११६७ ] में निर्वाण को अनुनर-योगक्खेम, 'अनुपन' कहा है । २. असंस्कृत को उदान [ ८३] में, तथा इतिवृत्तक [४३] में अनुष्यन्न (= अनुत्पन्न , अकत (= अकृत ) कहा है । अंगुत्तर [२४३४], संयुत्त [३१।१२] में कहा है कि सब संस्कृत और असंस्कृत वस्तुओं में कर्म-च्छेद, नृष्णा-क्षय, विराग, निर्वाण अग्र है । निर्वाण अग्र-धर्म, द्वितीय रत्न, अग्र-प्रसाद, शरण है । संयुत्त के असंलतबग्ग [ ४१३५७] में अनेक पर्यायवाची शब्द है। यह राग, द्वेष, और मोह का दय है । मैं तुमको अन्त, अनार, सब, पार, निपुण, सुदुदर्श, सत्रा सब्बथ जातियो ।। निरुपता ॥