पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/३८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पुसे का दूसरा पो-दर्शन पुसे अन्य कारणों से भी यह निष्कर्ष निकालते हैं कि पूर्वकालीन बौर-धर्म दार्शनिक न था। पालि-साहित्य में निर्वाण के लिए 'अमृत' की श्राख्या का व्यवहार किया गया है। इसके आधार पर पुसे अपना मत पुष्ट करते हैं। किन्तु यह अमृतत्व क्या है ? यह अमिताभ का स्वर्ग नहीं है । यह वैदिकों का अमृतत्व नहीं है, जिसका अर्थ है पितृलोक का निवास । यह निरोध है। बौद्ध-धर्म में देवलोकों की कमी नहीं है । किन्तु निर्वाण उन सब लोकों के परे है, जिनकी हम कल्पना कर सकते हैं। 'अमृत' का केवल इतना ही अर्थ है कि यह अजर, अचैतन्य, अमृत्यु अवस्था है । क्योंकि यह वह स्थान है, जहां नाम ( पुनर्भव ) मरण (पुनःमरण )-प्रबन्ध का उच्छेद होता है । न्यायभाष्य में भी 'अमृत' शब्द का व्यवहार पाया बाता है, और न्याय का निर्वाण भी श्रचैतन्य है। तर्क यह जब बुद्ध से निर्वाण के विषय में प्रश्न किया गया, तब उन्होंने कुछ उत्तर नहीं दिया। इस संबन्ध में बह दो सूत्रों के वाक्य उद्धृत करते हैं। यह स्थापनीय प्रश्न है । पुसे यह समझते हैं कि बुद्ध के तूष्णीभाव का कारण यह है कि वे दर्शन-शास्त्र में व्युत्पन्न न थे | वे नहीं जानते थे कि इन प्रश्नों का क्या उत्तर होना चाहिए, और इसलिये वे चुप थे। वस्तुतः वे इसलिए चुप थे कि वे बताना चाहते ये कि निर्वाण अवाच्य है । वसुबन्धु [ अभिधर्मकोश ५।२२] कहते हैं कि जो प्रश्न टीक तरह से पूछा नहीं गया है, वह स्थापनीय है। यदि कोई प्रश्न करे कि क्या स्कन्धों से सत्व अन्य है या अनन्य, तो इसका स्थापनीय व्याकरण करना चाहिये | क्योकि सत्व नाम का कोई द्रव्य नहीं है। इसी प्रकार यह प्रश्न भी स्थापनीय है कि वथ्या-पुत्र श्याम है या गौर ? हीनयान के परवर्ती निकाय पुसे का विचार है कि निर्वाण के संबन्ध में पीछे के निकायों का मत, यथा वैभाषिकों का मत, आगम से बहुत कुछ भिन्न है । शरवास्की का कहना है कि वैभाषिक केवल सर्वास्तिवाद के मत का समर्थन करते हैं। वे वैभाषिक इसलिए कहलाते हैं, क्योंकि वे विभाषा-शास्त्र को प्रामाणिक मानते हैं । विभाषा अागम की व्याख्या है । वैमापिक मत सर्वास्ति- वाद का साधारणतः अनुसरण करता है। मौत्रान्तिकों का निकाय अवश्य भिन्न है। बौद-शासन में बो भेद हुआ, और जिसके कारण महायान की उत्पत्ति हुई, उसका यह निकाय सूचक है। हम यह कह सकते हैं कि सौत्रान्तिक पूर्व-हीनयान और महायान के बीच का है। शरवारकी स्वीकार करते हैं कि बौद्ध-धर्म की प्रारंभिक अवस्था में ही श्राभिधार्मिक साहित्य की वृद्धि हुई है। किन्तु यह ठीक नहीं है कि यह पूर्वरूप से न्यावृत्त हुआ है । बौद्ध- धर्म का आरंभ ही बहुधर्मवाद से हुआ है। उसने अात्मा का प्रतिषेध किया है, और धर्मों की प्रतिष्ठा की है । इनमें से कुछ धर्म केवल प्रज्ञप्ति-सत् हैं । सौत्रान्तिकों ने इनको धर्मों की सूची से बहिष्कृत किया, अतः धर्मों को तालिका में केवल वही रह गये, जो इन्द्रिय तथा मन के विषय हैं । सौत्रान्तिक बुद्ध-वचन को ही प्रमाण मानते हैं, वे अभिधर्म की प्रामाणिकता स्वीकार नहीं