पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४१४

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वसुबन्धु एक प्रश्न उत्थापित करते है:-परमाणु स्पर्श करते या नहीं ? काश्मीर-वैभाषिक कहते हैं कि परमाणु स्पर्श नहीं करते । यदि परमाणु साकल्येन स्पर्श करते, तो द्रव्य अर्थात् विभिन्न परमाणु मिश्रीभूत होते; अर्थात् एकदेशीय होते। यदि परमाणु एक देश में स्पर्श करते, तो उनके अवयव होते; किन्तु परमाणु के अवयव नहीं होते। किन्तु यदि परमाणु में स्पर्श नहीं होता, तो शब्द की अभिनिष्पत्ति कैसे होती है ? इसी कारण शब्द संभव है, क्योंकि स्पर्श नहीं होता । यदि परमाणुओं का स्पर्श होता, तो हाथ से अभ्याहत होने पर हाथ उसमें सक्त हो जाता, पत्थर से अभ्याहत होने पर पत्थर उसमें मिल जाता, यथा लाक्षा लाक्षा में घुल मिल जाती है; और शब्द की अभिनिष्पत्ति न होती। किन्तु यदि परमाणु स्पर्श नहीं करते,तो संचित या परमाणुओं का संहात प्रत्याहत होने पर विशीर्ण क्यों नहीं होता १ क्योंकि वायु-धातु संघात को संचित करता है, या उसका संधारण करता है । चक्षुरावि विज्ञान के विषय और आश्रय यहां एक प्रश्न विचारणीय है :-चन्तु रूप देखता है या चक्षुर्विज्ञान देखता है । वैभाषिक तथा विज्ञानवादी-वैभाषिक-मत के अनुसार चतु देखता है। विज्ञानवादी का मत है कि चतु नहीं देखता । उसका कहना है कि यदि चतु देखता है, तो श्रोत्र या काय- विज्ञान में श्रासक्त पुद्गल का चतु भी देखेगा । वैभाषिक उत्तर देते हैं कि हमारा यह कहना नहीं है कि सब चतु देखते हैं । चन, देखता है, जब यह सभाग है; अर्थात् जब यह चतु- विज्ञान-समंगी है, चतुर्विज्ञान को संमुख करता है । किन्तु उस अवस्था में जो देखता है, वह चक्षुराश्रित विज्ञान है ? नहीं; क्योंकि कुड्य या अन्य किसी व्यवधान से प्रावृत रूप दिखाई नहीं पढ़ता । किन्तु विज्ञान अभूत है, अप्रतिष्ठ है; अतः यदि चक्षुर्विज्ञान देखता होता, तो वह व्याधान से श्रावृत रूप भी देवता । विज्ञानवादी उत्तर देता है :---श्रावृत रूप के प्रति चक्षुर्विज्ञान उत्पन्न नहीं होता; उनके प्रति उत्पन्न न होने से यह उनको नहीं देखता। किन्तु इन रूपों के प्रति यह उत्पन्न स्यों नहीं होता है हम वैभाषिकों के लिए, जिनका पक्ष है कि चक्षु देखता है, और जो मानते है कि चक्षु के स्पतित्र होने से व्यवहित रूप में चक्षु की वृत्ति का अभाव है; यह बताना सुगम है कि चक्षुर्विज्ञान की अन्तरित रूप के प्रति उत्पत्ति क्यों नहीं होती। वास्तव में विज्ञान की प्रवृत्ति उसी एक विषय में होती है, जिसमें उसके श्राश्रय की होती है । किन्तु यदि श्रापका मत है कि विज्ञान देखता है, तो आप इसका कैसे व्याख्यान करते है कि व्यवहित रूप में विज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती। असुबन्धु-यहाँ श्राचार्य वसुबन्धु विज्ञानवादियों के पक्ष में है। वैमानिकों से उनका कहना है कि यदि आपका मत है कि चतुरिन्द्रिय प्राप्त विश्य को देखता है, जैसे कायेन्द्रिय तब मैं मानूगा किं चक्षुरिन्द्रिय के सतिध होने के कारण वह व्यवहित रूप का ग्रहण नहीं करता, किन्तु श्रापका तो मत है कि चतुरिन्द्रिय दूर से देखता है। अतः श्रापको यह कहने का अधिकार नहीं है कि सप्रतिष होने के कारण यह व्यवहित रूप नहीं देखता।