पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४२५

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पंचदा अचान परापेक्षया लजा है । आत्मगौरख को देखकर जो लजा होती है, वह ही है । परनगहों के मय से जो लजा होती है, वह अपत्राप्य है । .-८, प्रखोम और भद्वेष--विशनवाद के अनुसार भवत्रय और भवोपकरण के लिए अनासक्ति (विराग ) अलोम का स्वभाव है। दुःखत्रय और दुःखोपकरण के लिए अनाघात अद्वेष का स्वभाव है । वसुबन्धु के अनुसार अलोम लोभ का प्रतिपक्ष है। यह उद्वेग (निवेद) और अनासक्ति है, अद्वेष मैत्री है । ..अविहिंसा--अविहेठना है। वसुबन्धु पंच-स्कन्ध में कहते हैं कि अविहिसा 'करुणा' है। १०. वीर्य-चित्त का अभ्युत्साह है। यह कुशल में चित्त का उत्साह है, क्लिष्ट में नहीं। लिष्ट में उत्माह कौसीट है, क्योंकि विज्ञानवादी कुशल-महाभूमिकों में अमोह को भी गिनाते हैं। उनके अनुमार सत्य और वस्तु का अवबोध इमका स्वभाव है। सर्वास्तिवादी कहते हैं कि अमोह प्रज्ञात्मक है, अतः यह महाभूमिकों में 'मति की श्राख्या से पूर्व ही निर्दिष्ट हो चुका है, यह शाल-महाभूमिक नहीं कहलाता । विज्ञानवादी कहते हैं कि यद्यपि अमोह का स्वभाव प्रज्ञा हो, तथापि यह दिखलाने के लिए कि कुशल-पक्ष में प्रशा का अधिक सामर्थ्य है, हम उसे पुनः कुशल धर्म कहते हैं। इसी प्रकार दृष्टि बो प्रश-स्वभाव है, लिष्ट धर्म कहलाती है। धर्मपाल के अनुसार अमोह प्रशा नहीं है । वे कहते हैं कि अमोह का अपना स्वतंत्र स्वभाव है, यदि अमोह का स्वभाव प्रशा होता, तो महाकरुणा 'श्रावास्यामि श्रादि प्रजेन्द्रियों में परिगणित होती, और अद्वेष-अमोह के अन्तर्गत न होती। शोमन देवसिक स्थविरवाद के अनुसार शोभन चैतसिक २५ है। इनके चार विभाग है--१. प्रश्शेन्द्रिय, २. शोभन-साधारण, ३. अप्रमाण, और ४. विरति । अप्रमाण के दो भेद है-करुणा और मुदिता । विरति तीन प्रकार की है-सम्यक्- वाक्, सम्यक्कर्मान्त, सम्यक्-श्राजीव । ये पाँच अनियत हैं। ये कदाचित् उत्पन्न होते है। उत्पन्न होने पर भी ये एक साथ नहीं उत्पन्न होते है। शोभन साधारण १६ है-श्रद्धा, स्मृति, ह्री, अपत्राप्य, अलोन, अद्वेष, तत्रमध्यस्थता ( उपेक्षा), काय-प्रब्धि ( 'दरथा का व्युपशम ), चित्त-प्रश्रन्धि, काय-लघुता ( अगुरु-भाव ), चित्त-लधुता, काय-मृदुता, चित्त-मृदुता, काय-कर्मण्यता, चित्त-कर्मण्यता, काय-प्रागुण्यता, (= अग्लानि ), चित्त-प्रागुण्यता, काय-ऋजुकता (अकुटिलता), चित्त-ऋजुकता । काय-प्रभन्धि आदि में 'काय' शन्द समूहवाची है। वेदनादि स्कन्ध-त्रय से अभिप्राय है। काय-चित्त-प्रश्रन्धि काय-चित्त को अशान्त करनेवाले औद्धत्यादि केश के प्रतिपक्ष है। काय-चित्त-लघुता त्यान-मिद्धादि के प्रतिपद है। ख्यान-मिद्धादि काय-चित्त का गुरुभाव उत्पन्न करते हैं । काय-चित्त-मृदुता दृष्टि-मानादि केशों के प्रतिपक्ष है, जो काय-चित्त