पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४२९

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पंचवड मध्याय ये पांच प्रकार में से किसी में भी नियत नहीं है । ये महाभूमिक नहीं है, क्योंकि ये सर्व चित्त में नहीं पाए जाते । ये कुशल-महाभूमिक नहीं है, क्योंकि इनका कुशलत्व से अयोग है। यह क्लेश-महाभूमिक नहीं है, क्योंकि सर्वग क्लिष्टों में इनका अभाव है, क्योंकि सप्रतिष चित्त में राग नहीं होता। प्राचार्य वसुमित्र का एक संग्रह-श्लोक है:- स्मृत है कि पाठ अनियत है : वितर्क, विचार, कौकृत्य, मिद्ध, प्रतिघ, राग, मान, विचिकित्सा । विज्ञानवाद में पहते चार ही अनियत बतलाए गए है । शेष चार को वह मूल केशों में संग्रहीत करते हैं। स्थविरवादी वितर्क और विचार को प्रकीर्णकों में या नियत चैत- सिकों में गिनाते हैं। शेष अकुशल चैतसिक है। कौकस्य का शब्दार्थ कुकृतभाव है। किन्तु यहाँ कौकृत्य से एक चैतसिक धर्म का बोध होता है, जिसका प्रालंबन कौकृत्य अर्थात् कुकृतसंबन्धी चित्त का विप्रतिसार है । कोकृत्य विप्रतिसार का स्थानभूत है । विप्रतिसार के लिए कौकृत्य का निर्देश युक्त है । जिस विप्रतिसार का श्रालंबन अकृत कर्म है, उसको भी कोकृत्य कहते हैं। कौकृत्य कुशल भी होता है: जब कुशल न करके सन्ताप होता है, जब अकुशल करके सन्ताप होता है । यह अकुशल

-जब अकुशल न करके सन्ताप होता है, जब कुशल से सन्ताप होता है। इस उभय

कोकृत्य का उभय अधिष्ठान होता है। मिद्ध-चित्त का अभिसंक्षेप है। इससे काय संधारण में असमर्थ होता है । यह कुशल, अकुशल या अव्याकृत है। केवल लिष्ट-मिद्ध 'पर्यवस्थान है। वितर्क-विचार-चित्त का स्थूलभाव वितर्क है । चित्त का सूक्ष्मभाव विचार है । सौत्रान्तिकों के अनुसार वितर्क, और विचार वाक्-संस्कार हैं । जो श्रौदारिक वाक्- संस्कार होते हैं, उन्हें वितर्फ, और जो सूक्ष्म होते हैं, उन्हें विचार कहते हैं। इस व्याख्या के अनुसार वितर्क और विचार दो पृथग्भूत धर्म नहीं है, किन्तु समुदायरूप है, चित्त-चैत्त के कलाप है, जो वाक् समुत्थापक हैं, और जो पर्याय से औदारिक तथा सूक्ष्म होते हैं । वसुबन्धु के अनुसार वितर्क और विचार चित्त में एकत्र नहीं होते। ये पर्यायवर्ती है। वैभाषिव. इन्हें दो पृथग्भूत धर्म मानते हैं। चित-वैचन सामान्य विचार चित्त से बालंबन की सामान्यरूपेण उपलब्धि होती है। चैत विशेषरूपेण इसकी उपलब्धि करते हैं । चित्त और चैत्त, साश्रय, सालंबन, साकार, और संप्रयुक्त हैं। साश्रयादि चार भिन्न नाम एक ही अर्थ को प्राप्त करते हैं, चित्त और चैत 'साश्रया कहलाते हैं क्योंकि ये इन्द्रिय पर आश्रित हैं । वे सालंबन हैं, क्योंकि वे स्वविषय का ग्रहण करते हैं । वे साकार' हैं, क्योंकि वे श्रालंबन के प्रकार से प्राकार ग्रहण करते हैं। वे संप्रयुक्त हैं, क्योंकि वे अन्योन्य सम और अविप्रयुक्त हैं। वे पांच प्रकार से संप्रयुक्त हैं। चित्त और चैत्त श्राश्रय, श्रालंबन, श्राकार, काल, द्रव्य इन पांच समताओं से संप्रयुक्त है, अर्थात् वेदनादि वैत्त और चित्त संप्रयुक्त हैं, क्योंकि उनके श्राश्रय, पालघन और श्राकार एक ही हैं, क्योंकि वे सहभू है,